मैडिकल एजुकेशन अब हिंदी में देने की कोशिश की जा रही है. हो सकता है सरकार कोशिश न कर के कुछ जगह इसे थोपे. जिन पुस्तकों के कवर दिखे हैं उन से लगता है यह एक्सपैरिमैंट बहुत बुरा नहीं है क्योंकि मैडिकल कालेज उस शुद्ध हिंदी में नहीं दी जा रही है जिसे पंडित, आचार्य रघुवीर ने देश पर थोपा था और आम बोलचाल की भाषा हिंदी का संस्कृतीकरण कर दिया था. एनेटौमी को एनेटौमी ही लिख कर ‘व्ययच्छेद विधा’ न लिख कर सही कदम उठाया है. हिंदी का गुण रहा है कि यह सामान्य बोलचाल की भाषा रही है और सभी भाषाओं के शब्द आसानी से एडजस्ट करती रही है. रघुवीर ने हिंदी का संस्कृतीकरण कर डाला था ताकि यह केवल ऊंची जातियों वाले उन बच्चों तक लिमिटेड रह जाए जो किसी पंडित को टीचर की तरह रख सकें. हिंदी के नाम पर एक जाति ने हिंदी से आम आदमी को दूर कर डाला. वह हिंदी थोप दी गई जो बोली ही नहीं जाती थी जिस की अमिताभ बच्चन व धमेंद्र की फिल्म ‘चुपकेचुपके’ में कस कर पोल खोली गई.
जब भारतीय स्टूडैंट चीन, कजाकिस्तान, यूक्रेन में मैडिकल एजुकेशन के लिए जा सकते हैं और वहां की भाषाओं में लिखी किताबों और इंग्लिश की किताबों के सहारे मैडिकल एजुकेशन पूरी कर सकते हैं तो यहां क्यों नहीं संभव है.
दिक्कत इस बात की है कि यह स्टैप केवल पौलिटिकल है, ???...आईकार्ड...??? है. न अमित शाह न शिवराज सिंह चौहान को हिंदी में मैडिकल एजुकेशन देने में कोई रुचि है न उन्हें ???...कला...??? मालूम है. इन दोनों के निकट संबंधी विदेशों में अपने बच्चों को पढ़ा रहे हैं. उन्हें हिंदी से, बस, इतना प्रेम है कि वे घर के नौकरों और ड्राइवरों से बात कर सकें. वरना ये न हिंदी पढ़ते हैं और न चाहते हैं. 97 एक्सपर्ट्स ने जो टैस्ट दवाएं तैयार की हैं उन में इंग्लिश को अनटचेबल नहीं माना गया है. लैंग्वेज पूरी तरह मिक्स्ड है. इन्हें पढऩे में उन को आसानी होगी जिन की इंग्लिश कमजोर है.