लेन-देन का सर्वाधिक प्रचलित माध्यम मनी (धन) है. यह करेंसी नोट, सिक्कों, बैंक खाते में जमाराशि सहित अलग-अलग रूपों होता है. करेंसी नोट और सिक्कों को ‘फिएट मनी’ भी कहते हैं. इन्हें लीगल टेंडर भी कहा जाता है क्योंकि देश में लेन-देन के लिए कोई भी नागरिक इन्हें स्वीकारने से इन्कार नहीं कर सकता. इसलिए अर्थव्यवस्था में मनी सप्लाई का संतुलन बेहद जरूरी है.

अगर धन आपूर्ति घटती है तो अर्थव्यवस्था में कीमतें नीचे आने लगती हैं, जिसे डिफ्लेशन कहते हैं. लेकिन जब मुद्रा की छपाई ज्यादा होती है और धन की आपूर्ति बढ़ती है तो महंगाई बढ़ने लगती है. महंगाई बढ़ने से करेंसी का मूल्य घटता जाता है. यही वजह है कि आरबीआइ ‘रिजर्व मनी’, ‘नैरो मनी’ और ‘ब्रौड मनी’ के रूप में धन को वर्गीकृत कर मनी सप्लाई पर नजर रखता है.

चलन में मुद्रा, आरबीआई के पास जमा बैंकों की राशि और रिजर्व बैंक के पास जमा अन्य राशियों के कुल योग को ‘रिजर्व मनी’ कहते हैं. हालांकि आरबीआई सरकार व व्यवसायिक क्षेत्रों को जो धनराशि उधार देती है, उसे इस योग से घटा दिया जाता है. इसी तरह बैंकों पर आरबीआई के दावे, आरबीआई की शुद्ध विदेशी परिसंपत्तियां और जनता के प्रति सरकार की करेंसी लाइबिलिटी भी इसमें शामिल नहीं है. इसे हाईपावर्ड मनी भी कहते हैं. यह एक प्रकार से रिजर्व बैंक की कुल मौद्रक लाइबिलिटी होती है. इसीलिए आरबीआई को इसके लिए सोना-चांदी और सरकारी बांड परिसंपत्ति जुटाकर रखनी होती है.

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मसलन, अगर रिजर्व बैंक 10 हजार रुपये का सोना खरीदता है तो वह विक्रेता को मुद्रा जारी कर भुगतान कर देता है. इस तरह अर्थव्यवस्था में चलन में दस हजार रुपये की मुद्रा जुड़ जाती है. ये दस हजार रुपये आरबीआई की बैलेंस शीट में परिसंपत्तियों और लाइबिलिटी के कौलम में दर्ज हो जाएंगे. इसी तरह रिजर्व बैंक करेंसी जारी कर सरकार के बांड खरीदता है.

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