"मां मैं बहुत बीमार हूं, जल्दी से तुम मेरे पास गुड़गांव आ जाओ", स्वाती का ये मैसेज मुझे झकझोरने के लिए काफी था.
मैं ने एक पल नहीं सोचा और पहली फ्लाइट ले उसके पास पहुंच गयी. दो सालों से वह वहां जाब कर रही है. मेरे अथक परिश्रम व स्वप्नों को साकार किया था उसने. कोई साल भर से मैं उसे शादी कर लेने की जिद कर रही थी.
"हर उम्र की एक जरूरत है, वक्त पर सब शोभा देता है", मैं उसे कहती.
वह नौकरी बदलने की कोशिश या प्रमोशन की दौड़ का हवाला देते हुए मुझे टाल देती. अभी पिछले दिनों मैं ने उसे हाईकोर्ट के उस फैसले का हवाला देते हुए कहा था कि अब 18-19 के बच्चे भी संगी खोजने लगे हैं, फिर वह तो बालिग है. इस बात उसने कुछ प्रतिक्रिया तो नहीं दी पर उसकी अचानक से गंभीर होती गई वाणी ने मुझे आगाह तो किया. मां अपने बच्चों को बिन देखें भी भांप लेती है. पर अब मेरे रडार से बाहर हो गई थी.
"क्या हुआ बेटा ?", उसके पीले पड़े चेहरे को देखकर मैं सिहर उठी. देर तक वह मेरे सीने से लग रोती रही. फिर उसने जो खुलासा किया तो मेरा सर्वांग सिहर उठा.
"मां मुझे माफ कर दो. मैं लगभग एक साल से अपने बौस के साथ रह रही थी. मैं उसे जब शादी के लिए कहती वह लिव इन रिलेशनशिप की वकालत करता. स्वत: मुझे भी ये स्थिति ठीक लगने लगी. जिम्मेदारी कुछ भी नहीं पर मजा भरपूर", उसने जब ऐसा कहा तो मैं परे खिसकने लगी.