दृश्य-1

भोपाल के एक बड़े और पुराने मंदिर में भागवत कथा हो रही थी. प्रवेशद्वार के ठीक सामने महाराजजी और उन की मंडली संगीतमय भागवत वांच रही थी. कथावाचक महाराज के बारे में पहले ही काफी प्रचारप्रसार हो चुका था कि वे बहुत पहुंचे हुए हैं और कई बार उन का प्रभु से साक्षात्कार हो चुका है. लिहाजा, उन्हें किसी चीज की जरूरत नहीं. वे तो बस कलियुगी लोगों को तारने के लिए धर्म का काम करते हैं.

आयोजक एक संपन्न ब्राह्मण परिवार था, जिस के फ्लैक्स हौल के चारों तरफ लगे थे कि फलां परिवार श्रीमद्भावगत में आप का हार्दिक स्वागत करता है. इन फ्लैक्सों में कथावाचक सिद्ध महाराज का फोटो प्रमुखता से छपवाया गया था. हौल की सजावट में कोई कसर आयोजक परिवार ने नहीं छोड़ी थी. एक तरफ के कोने में चायपानी का इंतजाम भी था. भंडारा तो रोज भागवत में होता ही है. सिंहासननुमा क्या, बल्कि सिंहासन कहना ही बेहतर होगा. महाराज माइक के सामने सुदामा प्रसंग सुना रहे थे. हौल में बैठे और खड़े लगभग डेढ़ हजार भक्त भक्तिरस में डूबे इस का रसास्वादन कर रहे थे. भागवत का यह चौथा ही दिन था और मोहमाया त्यागने का दावा करने वाले महाराजजी के सामने हजारों की दक्षिणा शोभायमान हो रही थी, जिसे देखदेख कर उन के चेहरे का तेज और बढ़ जाता है.

अभी महाराजजी ने कृष्णसुदामा प्रसंग का भावभीना वर्णन शुरू ही किया था कि मंच के पीछे से हाथ में दानपात्र लिए एक गरीब मैलाकुचैला सा पात्र अवतरित हुआ और महाराज की तरफ प्रणाम की मुद्रा में आते नीचे उतर गया. महाराज ने इशारे से स्पष्ट किया कि यही सुदामा है और फिर मूल प्रसंग पर आ गए. उस सुदामा का दर्शकदीर्घा में आना था कि भक्त उस के पैर छूछू कर उस के पात्र में यथासंभव पैसा यानी दानराशि डालने लगे. भक्ति में सहानुभूति का पुट डालने की गरज से वह सुदामा थोड़ा लंगड़ा कर चल रहा था. देखते ही देखते उस का पात्र दान के नोटों से भर गया तो उस ने नोट कंधे पर टंगे थैले में ठूंस लिए, जिस से दानदाताओं को दान देने में परेशानी न रहे.

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