कट्टरपंथी पौराणिकवादियों की आंखों में दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय किरकिरी बना हुआ है और अगर यह सरकार लंबे दौर तक चली तो यह विश्वविद्यालय गुरुकुल कांगड़ी जैसा बन जाएगा. कन्हैया कुमार का मामला न तो पहला था और न अंतिम. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की वामपंथी, उदार, धर्मविरोधी और सरकारविरोधी नीतियों ने उसे एक अलग आभा दे रखी थी. ये नीतियां हर सरकार को खटकती रही हैं. कांग्रेस इन को सहन करती रही है जबकि भारतीय जनता पार्टी इन्हें ईशनिंदा और देशविरोधी मानती है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, जिसे जेएनयू भी कहा जाता है, में जिस तरह से तरहतरह के विचारों को खुलेआम व्यक्त करने की छूट रही है, वैसी हर विश्वविद्यालय में होनी चाहिए. अफसोस, अधिकांश विश्वविद्यालयों में केंद्र या राज्य सरकार समर्थित पार्टियां छात्रसंघों पर कब्जा कर लेती हैं और फिर विश्वविद्यालय को सत्तारूढ़ दल के लिए भीड़ मुहैया कराने व युवा कार्यकर्ता तैयार करने की फैक्टरी बना डाला जाता है.
भाजपा के नेतृत्व में केंद्र पर काबिज राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार इस विश्वविद्यालय को मिलने वाली आर्थिक सहायता, यहां के प्रवेश के नियमों में बदलाव, होस्टलों में दाखिले के नियम बदलने के साथ अनुशासन के नाम पर तरहतरह के नियम बना कर यह कोशिश कर रही है कि यहां नए स्वतंत्र विचारों की जगह न हो.
किसी भी समाज की उन्नति तब होती है जब वहां के ठहरे पानी को खंगाला जाता रहे और वहां नए पानी का स्वागत हो. नए विचार, भिन्न लोग, खुली बहस, दूसरों की राय से अलग होने की
आजादी आदि दकियानूसी सोच से बाहर निकालती हैं पर यह आजादी सत्ताधारियों को खतरा लगती है चाहे वह पूरे समाज के लिए उपयोगी हो.