लेखिका- लक्ष्मी सक्सेना
गाड़ी की रफ्तार धीरेधीरे कम हो रही थी. सुधीर ने झांक कर देखा, स्टेशन आ गया था. गाड़ी प्लेटफार्म पर आ कर खड़ी हो गई थी. प्रथम श्रेणी का कूपा था, इसलिए यात्रियों को चढ़नेउतरने की जल्दी नहीं हो रही थी.
सुधीर इत्मीनान से अटैची ले कर दरवाजे की ओर बढ़ा. तभी उस ने देखा कि गाड़ी के दरवाजे पर सुनहरे फ्रेम का चश्मा लगाए व सूटबूट पहने एक आदमी आरक्षण सूची में अपना नाम देख रहा था.
उस आदमी को अपना नाम दिखाई दिया तो उस ने पीछे खड़े कुली से सामान अंदर रखने को कहा.
सुधीर को उस की आकृति कुछ पहचानी सी लगी. पर चेहरा तिरछा था इसलिए दिखाई नहीं दिया. जब उस ने मुंह घुमाया तो दोनों की नजरें मिलीं. क्षणांश में ही दोनों दोस्त गले लग गए. सुधीर के कालेज के दिनों का साथी विनय था. दोनों एक ही छात्रावास में कई साल साथ रहे थे.
सुधीर ने पूछा, ‘‘आजकल कहां हो? क्या कर रहे हो?’’
विनय बोला, ‘‘यहीं दिल्ली में अपनी फैक्टरी है. तुम कहां हो?’’
‘‘सरकारी नौकरी में उच्च अधिकारी हूं. दौरे पर बाहर गया था. मैं भी यहीं दिल्ली में ही हूं.’’
वे बातें कर ही रहे थे कि गाड़ी की सीटी ने व्यवधान डाला. एक गाड़ी से उतर रहा था, दूसरा चढ़ रहा था. दोनों ने अपनेअपने विजिटिंग कार्ड निकाल कर एकदूसरे को दिए. सुधीर गाड़ी से उतर गया. दोनों मित्र एकदूसरे की ओर देखते हुए हाथ हिलाते रहे. जब गाड़ी आंखों से ओझल हो गई तो सुधीर के पांव घर की ओर बढ़ने लगे.
टैक्सी चल रही थी, पर सुधीर का मन विनय में रमा था. विनय और वह छात्रावास के एक ही कमरे में रहते थे. विनय का मन खेलकूद में ही लगा रहता था, जबकि सुधीर की आकांक्षा थी कि किसी प्रतियोगिता में चुना जाए और उच्च अधिकारी बने. इसलिए हर समय पढ़ता रहता था.