दुनिया में तरहतरह की जातियां, जनजातियां और उपजातियां हैं. सभी अपनेअपने में मस्त हैं. कभी दुखी हैं तो कभी सुखी. दुखसुख तो लगा ही रहता है. ऐसे ही है एक फेसबुकिया समाज, जहां हर छोटेबड़े, अमीरगरीब, हर धर्म व जाति के लोगों को बराबर का स्थान प्राप्त है.
फेसबुकिया कई प्रकार के होते हैं. एक बहुत ही हलके टाइप फेसबुकिया होते हैं जो कभीकभार भूलेभटके यहां विचरण करते हैं. इन से बढ़ कर मिडिल क्लास यानी वे फेसबुकिया होते हैं जो थोड़ेथोड़े समय के अंतराल पर इस समाज में घुसपैठ करते रहते हैं. हैलोहाय की, हिंदी, अंगरेजी या किसी भी भाषा में दसपांच लाइनें लिखींपढ़ीं, कुछ लाइकवाइक, कमैंटशमैंट किए और फिर बैक टू पवेलियन हुए.
एक होते हैं अत्यंत कट्टर फेसबुकिया. असल में फेसबुक इन्हीं लोगों की बदौलत चमकती है क्योंकि इन का उठनाबैठना, चलनाफिरना, खानापीना, सोनाजागना, आनाजाना, रोनाहंसना सब फेसबुक से ही होता है यानी फेसबुक के नाम से शुरू, फेसबुक के नाम पर खत्म. फेसबुक इन से और ये फेसबुक से होते हैं. ये फेसबुकिया किसी के मरने की खबर को भी लाइक करते हैं.
ये जो कट्टर फेसबुकिया होते हैं न, वे सुबह उठते ही ब्रश करने से पहले आंखें मींचते हुए फेसबुकियाने बैठ जाते हैं. जिसे कुछ आता है वह अपनी वाल पर कुछ लिखता है, जिसे नहीं आता वह भी कुछ लिखता ही है.
तमाम किताबें उलटतेपलटते जितना कि इग्जाम के समय कोर्स की किताबें भी नहीं उलटीपलटी होंगी या फिर किसी शेरोशायरी की किताब से ही कुछ उड़ा कर अपनी वाल पर लगा लेते हैं या लिख लेते हैं. और अगर कुछ नहीं मिला तो अपने घर की कोई रामकहानी, जैसे ‘कल मेरी बालकनी में एक गोरैया आई थी...’ या ‘मेरी बगिया में कल एक गुलाब की कली निकली...’ अथवा ‘मैं फलां जगह की यात्रा से लौटा हूं... या जाने वाला हूं’ वगैरहवगैरह लिखते हैं. लिखने के बाद उन के दिल की धड़कन तब तक रुकी रहती है जब तक उन के स्टेटस को कोई दूसरा फेसबुकिया लाइक न कर दे या फिर 2-4 कमैंट स्टेटस की झूठीसच्ची प्रशंसा में न ठोंक दे.