7 साल का आर्यन घर का इकलौता बच्चा है. वह न नहीं सुन सकता. उस की हर जरूरत, हर जिद पूरी करने के लिए मातापिता दोनों में होड़ सी लगी रहती है. उसे आदत ही हो गई है कि हर बात उस की मरजी के मुताबिक हो. हालात ये हैं कि घर का इकलौता दुलारा इस उम्र में भी मातापिता की मरजी के मुताबिक नहीं, बल्कि मातापिता उस की इच्छा के अनुसार काम करने लगे हैं. कई बार ऐसा भी देखने में आता है कि हद से ज्यादा लाड़प्यार और अटैंशन के साथ पले इकलौते बच्चों में कई तरह की समस्याएं जन्म लेने लगती हैं. ‘एक ही बच्चा है’ यह सोच कर पेरैंट्स उस की हर मांग पूरी करते हैं. लेकिन यह आदत आगे चल कर न केवल अभिभावकों के लिए असहनीय हो जाती है बल्कि बच्चे के पूरे व्यक्तित्व को भी प्रभावित करती है.
इसे मंहगाई की मार कहें या बढ़ती जनसंख्या के प्रति आई जागरूकता या वर्किंग मदर्स के अति महत्त्वाकांक्षी होने का नतीजा या अकेले बच्चे को पालने के बोझ से बचने का रास्ता? कारण चाहे जो भी हो, अगर हम अपने सामाजिक परिवेश और बदलते पारिवारिक रिश्तों पर नजर डालें तो एक ही बच्चा करने का फैसला समझौता सा ही लगता है. आज की आपाधापी भरी जिंदगी में ज्यादातर वर्किंग कपल्स एक ही बच्चा चाहते हैं. ये चाहत कई मानों में हमारी सामाजिकता को चुनौती देती सी लगती है. न संयुक्त परिवार और न ही सहोदर का साथ, एक बच्चे के अकेलेपन का यह भावनात्मक पहलू उस के पूरे जीवन को प्रभावित करता है.