रेटिंग: ढाई स्टार
हमारे देश का यह दुर्भाग्य है कि शिक्षा पद्धति व शिक्षा व्यवस्था पर फिल्म बनाने वाले सभी फिल्मकार अब तक व्यावसायिकता के चक्कर में इस विषय के साथ न्याय करने में विफल होते रहे हैं. ताजातरीन फिल्म ‘‘ब्लैकबोर्ड वर्सेस व्हाइटबोर्ड’’ से इंटरवल तक अच्छी उम्मीदें जगाती है, मगर इंटरवल के बाद फिल्म मूल मुद्दे से भटक जाती है.
गांवों में प्राथमिक स्कूलों और प्राथमिक शक्षा व्यवस्था पर आघात करने वाली फिल्म ‘‘ब्लैकबोर्ड वर्सेस व्हाइट बोर्ड’’ की कहानी झारखंड के एक गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल की दुर्दशा की है. प्राथमिक स्कूल गांव के मुखिया गजराज प्रताप सिंह (अशोक समर्थ) के दादाजी द्वारा दान में दी गयी जमीन पर बना है. इसलिए स्कूल के दो कमरों में मुखिया अपनी गाय भैंस का भूसा भरते हैं. मुखिया ने अपना निजी स्कूल चला रखा है और उनका प्रयास रहता है कि बच्चे सरकारी प्राथमिक स्कूल की बजाय उनके स्कूल में पढ़ने जाएं. मुखिया की साली पुनीता( मधु रौय) ,मुखिया के स्कूल में पढ़ाने के साथ ही सरकारी प्राथमिक सकूल मे भी शिक्षक हैं, पर वह सिर्फ तनखाह लेने के लिए ही सरकारी प्राथमिक स्कूल में जाती है. प्राथमिक स्कूल के हेड मास्टर दीनानाथ(रघुवीर यादव) कुछ नहीं कर पाते हैं. वह मजबूर हैं. स्कूल में शिक्षक की कमी व स्कूल के कमरों पर मुखिया का कब्जा के चलते सभी बच्चे एक ही कक्षा में एक साथ बैठकर पढ़ते हैं. कुछ बच्चे तो सिर्फ मिडडे मील के लिए स्कूल आते हैं और मिडडे मील मिलते ही अपने घर चले जाते हैं. इतना ही नहीं मिड डे मील का चार माह से सरकार ने पैसा नही दिया है. स्कूल के शिक्षकों की तनखाह भी चार माह से नही मिली है. गांव की ही लड़की पिंकी (अभव्या शर्मा ) हाई स्कूल में पढ़ती है मगर गांव के दबंग उसे गांव से बाहर पढ़ने नहीं जाने देते इसलिए वह भी प्राथमिक स्कूल में ही बैठती है. एक दिन इस स्कूल में नए शिक्षक अमित (धर्मेंद्र सिंह) आते हैं. वह स्कूल की हालत देखकर विचलित होते हैं. पता चलता है कि उनकी अपनी एक अलग क हानी है. पढाई पूरी होने के बावजूद सही नौकरी न मिलने पर वह दुकान खोलकर पकौड़े व चाय बेचकर अच्छा पैसा कमा रहे थे पर उनकी शादी नहीं हो रही थी. इसलिए परिवार के दबाव में चाय पकोड़े की दुकान बंद कर शक्षक बन गए. हेड मास्टर दीनानाथ की सलाह पर वह उसी तरह से स्कूल के चलने देने के लिए राजी हो जाते हैं. पर तभी दिल्ली से एनआई समाचार चैनल की पत्रकार रश्मी (अलिस्मिता गोस्वामी) अपने कैमरामैन के साथ इस स्कूल पर स्टोरी तैयार करने आती है. अमित से उसकी बहस हो जाती है और अमित इस चुनौती को स्वीकार कर लेता है कि वह 15 दिन में इस स्कूल को एक आदर्श स्कूल बना देगा. फिर अमित,हेड मास्टर दीनानाथ,रश्मी व बच्चों के सहयोग से स्कूल की कायापलट हो जाती है. पुनीता को रोज स्कूल आना पड़ता है. इससे मुखिया का भाई हेमराज उर्फ हेमू (मनु कृष्णा) काफी नाराज हैं. पर विधायकी का चुनाव लड़ने जा रहे मुखिया अपने भाई को चुप रहने को कहते हैं. लेकिन जिस दिन रश्मी व उसके कैमरामैन वापस दिल्ली जा रहे होते हैं उस दिन हेमू, शिक्षक अमित को धमकाता है, जिसे छिपकर कैमरामैन अपने कैमरे में कैद कर लेता है. दिल्ली पहुंचते ही रश्मी अपने चैनल पर खबर चलाती है कि किस तरह एक शिक्षक ने स्कूल की कायापलट की और मुखिया के भाई हेमू ने उसे किस तरह धमकाया. चैनल पर खबर आते ही मुखिया की पार्टी उन्हे विधायकी की टिकट देने से मना कर देती है. तब मुखिया मारते हुए हेमू को पुलिस स्टेशन लाते हैं, पर अमित उसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराने से मना कर देते हैं. इस तरह मुखिया अपनी छवि सुधार कर पुनः विधायकी का चुनाव लड़ने की टिकट पा जाते हैं. उसके बाद हेमू अपने खास नौकर नथुनी की मदद से स्कूल के मिडडे मील में जहर मिलवा देते हैं और सारा आरोप स्कूल के शक्षक अमित पर लगता है. मामला अदालत पहुंचता है, जहां स्कूल की तरफ से वकील त्रिपाठी (अखिलेंद्र मिश्रा) और अमित की तरफ से रश्मी मुकदमा लड़ती है. कई घटनाक्रम तेजी से बदलते है. अंततः अदालत शिक्षक अमित को बाइज्जत बरी करती है और मुखिया गजराज सिंह, हेमू, पुनीता व नथुनी को दोषी मानते हुए इन पर नए सिरे से मुकदमा चलाने का आदेश देती है.