सरकारी एजेंसियों को नियंत्रित व निर्देशित करतीं सरकारें देश की अदालतों को भी नियंत्रित करने की कोशिश करती रही हैं, फिर चाहे वह सैशन कोर्ट हो, हाईकोर्ट हो और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ही क्यों न हो.
अनियोजित व अचानक लगाए गए राष्ट्रव्यापी लौकडाउन के कारण रोजीरोटी छिनने से सड़क पर गिरतेपड़ते, चलतेदौड़ते, बीमार होते, भूखप्यास से मरते माइग्रेंट लेबरों की दुखदाई हालत पर चौतरफा आलोचना और फिर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से हुई किरकिरी की वजह से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार तिलमिलाई हुई है. सरकार ने आलोचना करने वालों का मुंह बंद करने की कोशिश तो की ही है, न्यायपालिका से जुड़े लोगों को भी अपने निशाने पर लिया है और उन की बेहद तीखी आलोचना की है. इतना ही नहीं, उन पर निजी हमले तक किए हैं. साथ ही, कोर्टों पर भी आरोप मढ़ा है.
मालूम हो कि कि देश के 20 बहुत ही मशहूर और बड़े वकीलों ने चिट्टी लिख कर सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि माइग्रेंट लेबरों की मौजूदा अतिदयनीय स्थिति उन के मौलिक अधिकारों का हनन है. इस के साथ ही इन वकीलों ने सर्वोच्च न्यायालय को उस के उत्तरदायित्व का एहसास कराते हुए कहा था कि संकट की इस घड़ी में न्यायपालिका को इन मौलिक अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि यह उस का संवैधानिक कर्तव्य है.
मशहूर अधिवक्ताओं की चिट्ठी के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने प्रवासियों के मामले का स्वत: संज्ञान लिया. केंद्र व राज्य सरकारों को नोटिस दिए. 28 मई को सुप्रीम कोर्ट में इस पर सुनवाई हुई. सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का रवैया बहुत आक्रामक रहा.