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लेखक- डा. शीतांशु भारद्वाज

गोपुली को लगने लगा कि उस के मां बाप ने उस की जिंदगी तबाह कर दी है. उन्होंने न जाने क्या सोच कर इस कंगले परिवार में उसे ब्याहा था?

वह तो बचपन से ही हसीन जिंदगी के ख्वाब देखती आई थी.

‘‘ऐ बहू...’’ सास फिर से बड़बड़ाने लगी, ‘‘कमाने का कुछ हुनर सीख. इस खानदान में ऐसा ही चला आ रहा है.’’

‘‘वाह रे खानदान...’’ गोपुली फट पड़ी, ‘‘औरत कमाए और मर्द उस की कमाई पर गुलछर्रे उड़ाए. लानत है, ऐसे खानदान पर.’’

उस गांव में दक्षिण दिशा में कुछ कारीगर परिवार सालों से रह रहे थे. न जाने कितनी ही पीढि़यों से वे लोग ठाकुरों की चाकरी करते आ रहे थे. तरक्की के नाम पर उन्हें कुछ भी तो नहीं मिला था. आज भी वे दूसरों पर निर्भर थे.

पनराम का परिवार नाचमुजरे से अपना गुजरा करता आ रहा था. उस की दादी, मां, बीवी सभी तो नाचमुजरे से ही परिवार पालते रहे थे. शादीब्याह के मौकों पर उन्हें दूरदूर से बुलावा आया करता था. औरतें महफिलों में नाचमुजरे करतीं और मर्द नशे में डूबे रहते.

कभी गोपुली की सहेली ने कहा था, ‘गोपा, वहां तो जाते ही तुझे ठुमके लगाने होंगे. पैरों में घुंघरू बांधने होंगे.’

गोपुली ने मुंह बना कर जवाब दिया था, ‘‘नाचे मेरी जूती, मैं ऐसे खोटे काम कभी नहीं करूंगी.’’

लेकिन उस दिन गोपुली की उम्मीदों पर पानी फिर गया, जब उस के पति हयात ने कहा, ‘‘2 दिन बाद हमें अमधार की बरात में जाना है. वहां के ठाकुर खुद ही न्योता देने आए थे.’’

‘‘नहीं...’’ गोपुली ने साफसाफ लहजे में मना कर दिया, ‘‘मैं नाचमुजरा नहीं करूंगी.’’

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