इतिहास में चाहे जो स्थितियां रही हों, लेकिन आज महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं. वैसे ऐसा कोई अध्ययन तो उपलब्ध नहीं है कि भारत की अर्थव्यवस्था में आखिर महिलाओं का योगदान कितने फीसदी है. लेकिन हाल के सालों में जो नये क्षेत्र उभरकर आये हैं, मसलन- आईटी सेक्टर, वहां तो महिलाओं की संख्या 50 फीसदी तक पहुंच गई है. बीपीओ यानी काॅल सेंटर कारोबार में तो एक तरह से महिलाओं का ही वर्चस्व है.
लेकिन महिलाओं की इन तमाम कामयाबियों ने एक विरोधाभास मौजूद है. आज भी उनकी दुनिया के तमाम निर्णय पुरुष ही ले रहे हैं. हद तो यह है कि कई बार महिलाओं को पता ही नहीं चलता कि ऐसा हो रहा है. मसलन लड़कियां क्या कॅरिअर चयन करें, किस क्षेत्र में वह अपने सपने देखें, मंसूबे पालें, यह सब किसी हद तक घर के पुरुष सदस्य ही तय करते हैं. फिर चाहे वो पिता हों, भाई हों या बाद में पति. इसमें कोई दो राय नहीं है कि महिलाएं बेहतर शिक्षक होती हैं, कम से कम छोटी कक्षाओं की तो वह माॅडल शिक्षक होती ही हैं. लेकिन यह भी सच है कि इसका मतलब यह नहीं है कि हर महिला नौकरी के नाम पर सिर्फ टीचर ही बने. लेकिन हिंदुस्तान में पुरुषों का जो अप्रत्यक्ष दबाव है, उसके चलते ज्यादातर महिलाएं जब भी नौकरी की सोचती हैं तो उनका सबसे पहले ध्यान टीचर की नौकरी पर ही जाता है. देश में अध्यापन की डिग्री लेकर नौकरी का इंतजार कर रहे 20 लाख से ज्यादा अभ्यर्थियों में से 52 फीसदी के आसपास महिलाएं हैं.