प्रतिभा...

20 साल पुरानी बात है तब मैं स्कूल में नौकरी करती थी. स्कूल से घर के रास्ते में शहजाद नामक युवक की बाम्बे एक्सपोर्ट नाम से एक हैण्डलूम शौप थी जहां से मैं चादर, कुशन कवर और तौलिया आदि खरीदा करती थी. धीरे-धीरे उनसे मेरी बहुत अच्छी जान-पहचान हो गयी थी.

एक बार अगस्त में बारिश के लिए हल्की तौलियां खरीदने मैं दुकान पर गयी. बातों ही बातों में वे बोले, ‘‘आप तो राखी पर अपने मायके जा रहीं होंगी.’’ मुझे हमेशा से अपने भाई न होने का मलाल था सो दिल का दर्द जुबां पर आ गया और मैं दुखी स्वर में बोली, ‘‘मेरे भाई ही नहीं है तो मैं मायके जाकर क्या करूंगी. हम तो सिर्फ दो बहनें ही हैं.’’ मेरी बात सुनकर वे एकदम गंभीर हो गए और बोले, ‘‘बहन इस बंदे को आज से अपना भाई मानो, अगला रक्षाबंधन आपका सूना नहीं जाएगा.’’

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इसके बाद बात आयी गयी हो गयी और मैं भी इसे जोश और हवा में कही बात समझकर भूल गयी. रक्षाबंधन वाले दिन सुबह 11 बजे मेरे घर की घंटी बजी. दरवाजा खोला तो सामने शहजाद भाई खड़े थे. मेरे पैर छूकर बोले,

‘‘दीदी राखी नहीं बांधोगी.’’

‘‘हां हां’’ कहकर भावातिरेक में मेरी आंखों से आंसू बह निकले और खुशी से मैं उनके गले लग गई. उस दिन पहली बार मैंने अपने धर्म भाई को राखी बांधी, अपने हाथों से खाना बनाकर खिलाया. तब से लेकर आज तक मेरा कोई रक्षाबंधन सूना नहीं गया.

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