लेखिका- प्रमिला उपाध्याय
मालती रोज की तरह जब काम पर से लौटी तो घर के पास उसे मूंछें ऐंठते हुए रूपचंद मिल गया. उस ने पूछा, ‘‘कैसी हो, मालती?’’
‘‘ठीक हूं.’’
‘‘कब तक इस तरह हाड़तोड़ मेहनत करती रहोगी? अब तो तुम्हारी उम्र भी हो गई है, क्यों नहीं अपनी बेटी कम्मो को मेरे साथ मुंबई भेज देती हो? मैं बारगर्ल का काम दिला कर उसे हजारों रुपए कमाने लायक बना दूंगा. तुम बुढ़ापे में सुख और आराम से रहोगी.’’
‘‘नहीं भैया, मेरी बेटी इतनी दूर जा कर मेरे से अलग रह ही नहीं सकती. वैसे भी वह एक प्रोफैसर दीदी के यहां काम कर रही है और खुश भी है.’’
‘‘ओहो, तुम मेरी बात ही नहीं समझ रहीं. मैं तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूं. वैसे हड़बड़ी नहीं है, सोचसमझ कर अपना विचार मुझे बताना.’’
चिंतित सी मालती धीरे से सिर हिलाते हुए अपने घर में घुस गई. कम्मो यानी कामिनी अभी नहीं लौटी थी. 10 मिनट भी नहीं बीते होंगे कि वह आ गई. सुबह के 11 बजने वाले थे. मांबेटी थकी हुई थीं. कम्मो ने पूछा, ‘‘मां, चाय पिओगी?’’ चिंतित मालती ने थकी सी आवाज में कहा, ‘‘हां बेटी, बना न. अगर अदरक हो तो थोड़ी सी डाल देना, बहुत थक गई हूं.’’ थोड़ी देर में कम्मो 2 गिलासों में चाय ले कर आई, ‘‘क्या बात है मां, बहुत थकी और चिंतित लग रही हो?’’
‘‘नहीं बेटी, अब उम्र भी तो बढ़ रही है, थोड़ा ज्यादा काम करती हूं तो कभीकभी थकान लगने लगती है.’’
‘‘तुम इतनी मेहनत क्यों करती हो मां. अब तो मैं भी काम करने लगी हूं. जितना हम मांबेटी मिल कर कमा लेते हैं, 2 जनों के लिए काफी है.’’