‘प्रकाश, क्या होता जा रहा है तुम्हें, संभालो खुद को. सत्य से सामना करने का साहस जुटाओ. बीता कल अतीत की अमानत होता है, उस के सहारे आज को नहीं जिया जा सकता. एक बुरा सपना समझ कर सबकुछ भूलने का प्रयास करो.’
‘काश कि यह सब एक सपना होता निशा, अफसोस तो यह है कि यह सब एक हकीकत है. मेरे जीवन का एक हिस्सा है.’
प्रकाश के दर्द को जान कर निशा खामोश थी, उस ने इस घटना को अपने जीवन की सब से बड़ी भूल के रूप में स्वीकार कर लिया था. वह समझती थी कि इंसान खुद को परिस्थितियों के अनुरूप नहीं ढाल पाता तो परिस्थितियां ही उसे अपने अनुरूप ढाल लेती हैं, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ. रमिता का आगमन भी प्रकाश को सामान्य न कर सका. उस की बालसुलभ क्रियाएं भी उन्हें लुभा न सकीं. शायद कुछ पाने से ज्यादा कुछ खोने का गम था उन्हें.
प्रकाश के दिल की तड़प अब निशा के दिल को भी तड़पा जाती. तभी तो उस ने एक दिन कहा, ‘अगर रमिता में तुम्हें दीपक और ज्योति नजर आते हैं तो हम रजनी को ढूंढें़गे, उसे समझबुझ कर बच्चों को अपने पास ले आएंगे.’
‘नहीं निशा, अब मुझ में साहस नहीं है, रजनी के सामने जा कर खड़े होने का. और फिर रजनीरूपी बेल जिस वृक्ष से लिपटी है वह दीपक और ज्योति ही तो हैं. मैं उस की जड़ों को झकझरना नहीं चाहता. मैं रजनी के जीवन की बचीखुची रोशनी भी उस से छीनना नहीं चाहता.’
निशा का पूरा ध्यान रमिता की परवरिश की ओर लग गया. वक्त गुजरता गया. प्रकाश पहले से ज्यादा गुमसुम रहने लगे. हां, रमिता के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभाना उन्हें बखूबी आ गया था. वे नहीं चाहते थे कि प्रायश्चित्त की जो आग उन के दिल में सुलग रही है, उस की आंच भी रमिता तक पहुंचे. जिंदगी के 17-18 साल यों ही बीत गए.