बेइंतहा ताज्जुब से सब मेरा चेहरा देख रहे थे जिस पर कोई जज्बात न थे, एकदम सपाट व बेजान. बेटा असद बोल उठा, ‘मम्मी, आप के जाने के बाद अच्छेअच्छे खाने कौन बनाएगा?’ असद भी बाप की तरह मतलबी था. उसे खाने की पड़ी थी, मां की परवा न थी. मैं ने कहा, ‘आप की नई मां बनाएगी और खिलाएगी.’ शीरी फौरन बोल पड़ी, ‘पर मम्मी, उन्हें तो कुछ पकाना नहीं आता है.’
मैं ने कहा, ‘तुम्हारे पापा की मोहब्बत में सब सीख जाएगी.’ असद को फिर परेशानी हुई. वह भी बाप की तरह लापरवाह और कामचोर था, आज तक अपने कपड़े उठा कर न रखे थे, न प्रैस किए थे, न अलमारी जमाई थी, न कमरा साफ किया था. सारे काम मैं ही करती थी. वह कह उठा, ‘मम्मी, हमारे सब काम कौन करेगा?’
‘तुम्हारी नई मम्मी करेगी. वह सब संभाल लेगी. वह संभालने में ऐक्सपर्ट है, जैसे आप के पापा को संभाल लिया.’
आज मुझे कोई लिहाज नहीं रहा था. दोनों के चेहरे शर्म से झुके हुए थे. फिर मैं ने बच्चों से कहा, ‘आप दोनों जैसी जिंदगी जीने के आदी हो वह आप के पापा ही बरदाश्त कर सकते हैं, मैं नहीं. पर आप दोनों जब चाहो, मुझ से मिलने आ सकते हो.’
दूसरे दिन सुबह ही सोहा कार ले कर आ गई. उसे देख कर मुझे एक साहस मिल गया. फोन पर रोज बात होती थी. हम दोनों साथ ही कोर्ट गए. आधा घंटे समझाइश व नसीहत के बाद खुला मंजूर हो गया. ज्यादा वक्त इसलिए नहीं लगा क्योंकि दोनों पक्ष पूरी तरह सहमत थे. और रहीम साहब भी कोशिश में साथ थे.