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लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर

सुनील ने तिजोरी के चेहरे की तरफ देखा. एक निश्चिंतता और अपनी बात कहने के बाद चेहरे पर पसरी सहजता देख कर वह हैरान हुए बिना न रह सका, इसलिए बात बदलता हुआ बोला, ‘‘तुम गुल्लीडंडा किस के साथ खेलोगी?’’

‘‘छोटे भाई के साथ. ओह, वह वहां खेत में खड़ा मेरा इंतजार कर रहा होगा. मैं चलती हूं,’’ कह कर तिजोरी अधखुले गोदाम के शटर की तरफ बढ़ने के लिए मुड़ने को हुई, तभी जवान और गठीले बदन का कौंट्रैक्टर सुनील कलाई पकड़ कर उसे रोकता हुआ बोला, ‘‘लगता है, तुम नाराज हो गई. अच्छा, यह बताओ कि अगर हम भी गुल्लीडंडा खेलना चाहें, तो सिखा दोगी?’’

‘‘हांहां क्यों नहीं. बहुत आसान है. बस गुच्ची में गुल्ली के कोने इधरउधर रखो और डंडे से गुल्ली फंसा कर दूर उछालो. अगर सामने वाला गुल्ली कैच कर ले या गिरी हुई गुल्ली की जगह पर खड़े हो कर गुच्ची पर रखा डंडा पीट दे तो खिलाड़ी आउट. उस के बाद दूसरे खिलाड़ी का नंबर.

‘‘और अगर सामने वाला कैच न कर पाए और डंडे को भी न पीट पाए तो...?’’

कलाई की पकड़ और उंगलियों की हरकत का आभास करते हुए तिजोरी ने एक गहरी नजर सुनील पर डाली, फिर अपनी कलाई की उस जगह को घूरा, जहां सुनील का हाथ था.

सुनील ने तुरंत तिजोरी की कलाई छोड़ दी. तब वह बोली, ‘‘बाकी बातें खेत के मैदान में. अगर तुम गुल्लीडंडा खेलना चाहोगे तो...’’

‘‘अब तो मैं तुम्हारे साथ जरूर गुल्लीडंडा खेलूंगा,’’ सुनील ने कहते हुए जब उस के चेहरे की तरफ देखा, तो तिजोरी श्रीकांत को एकएक खंभा गिनते देख कर पूछ बैठी, ‘‘वह तुम्हारा साथी एकएक कर के क्या गिन रहा है?’’

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