लाश को नहला कर चिता पर रख दिया गया. अब इंतजार था महापात्र का, जिस से मुखाग्नि दी जा सके. उधर महापात्र लाश पर पड़ी दूसरी लाशों के हिसाबकिताब में बिजी था. सब से पूरे पैसे लेने के बाद ही वह हमारी तरफ आया. मंत्रोच्चार के साथ ही भाई साहब द्वारा अग्नि देने के बाद चिता जल उठी. इस अग्नि को घर से बड़ा ही सहेज कर लाया गया था.
तभी मेरी निगाह दूर ढेर पर चली गई. वहां लकड़ी की अरयियों का अंबार लगा था. मालूम पड़ा सब फिर बाजार में बेच दी जाएंगी, चारपाई आदि बनाने के काम आ जाएंगी. पास ही लाशों पर उतारी गईर् चादरों का ढेर था. इन को भी बाजार में अच्छे दामों पर बेचा जाना था.
अगले दिन घर के सभी बड़े चिता की राख को हंडिया में भरने के लिए श्मशान पहुंचे ताकि उसे वाराणसी, इलाहाबाद, गया व पुरी जैसे स्थानों पर पवित्र नदियों में विसर्जित किया जा सके.
इस कलश को ले कर भाई साहब को ही जाना था. जैसा मैं ने सुना है, भाई साहब एक बार भी दादी के जीवित रहते उन्हें साथ ले कर कहीं भी नहीं गए थे. वैसे हनीमून मनाने अपनी बीवी के साथकश्मीर से कन्याकुमारी तक जा चुके थे. उन का कहना था कि मां के लिए इतना न किया तो लोग क्या कहेगे. उन्हें बारबार लोगों के कहे जाने का डर खाए जा रहा था.
अंत में नहाने का नंबर आया. बिना नहाए घर में घुसने से घर अपवित्र हो जाने का डर था. मैं तो साफ नकार गया, ‘‘जाड़ा काफी है. घर जा कर गरम पानी से नहाऊंगा. दादी तो चली ही गईं.’’