लेखिका- लीला रूपायन
यह वृद्धावस्था सचमुच ही बड़ी बुरी है. मालूम नहीं लोगों की उम्र इतनी लंबी क्यों होती है? अगर उम्र लंबी ही होनी हो तो उन में कम से कम सामंजस्य स्थापित करने की तो बुद्धि होनी चाहिए? ‘अगर मेरी भी उम्र लंबी हुई तो क्या मैं भी अपने घरवालों के लिए सनकी हो जाऊंगी? क्या मैं अपनी मिट्टी स्वयं ही पलीद करूंगी?’ हमेशा यही सोचसोच कर मैं अपनी सुंदर जवानी को भी घुन लगा बैठी थी. बारबार यही खयाल आता, ‘जवानी तो थोड़े दिन ही अपना साथ देती है और हम जवानी में सब को खुश रखने की कोशिश भी करते हैं. लेकिन यह कमबख्त वृद्धावस्था आती है तो मरने तक पीछा नहीं छोड़ती. फिर अकेली भी तो नहीं आती, अपने साथ पचीसों बीमारियां ले कर आती है. सब से बड़ी बीमारी तो यही है कि वह आदमी को झक्की बना देती है.’
इसी तरह अपने सामने कितने ही लोगों को वृद्धावस्था में पांव रखते देखा था. सभी तो झक्की नहीं थे, उन में से कुछ संतोषी भी तो थे. पर कितने? बस, गिनेचुने ही. कुछ बच्चों की तरह जिद्दी देखे तो कुछ सठियाए हुए भी.देखदेख कर यही निष्कर्ष निकाला था कि कुछ वृद्ध कैसे भी हों, अपने को तो समय से पहले ही सावधान होना पड़ेगा. बाकी वृद्धों के जीवन से अनुभव ले कर अपनेआप को बदलने में ही भलाई है. कहीं ऐसा न हो कि अपने बेटे ही कह बैठें, ‘वाह मां, और लोगों के साथ तो व्यवहार में हमेशा ममतामयी बनी रही. हमारे परिवार वाले ही क्या ऐसे बुरे हैं जो मुंह फुलाए रहती हो?’ लीजिए साहब, जिस बात का डर था, वही हो गई, वह तो बिना दस्तक दिए ही आ गई. हम ने शीशे में झांका तो वह हमारे सिर में झांक रही थी. दिल धड़क उठा. हम ने बिना किसी को बताए उसे रंग डाला. मैं ने तो अभी पूरी तरह उस के स्वागत की तैयारी ही नहीं की थी. स्वभाव से तो हम चुस्त थे ही, इसीलिए हमारे पास उस के आने का किसी को पता ही नहीं चला. लेकिन कई रातों तक नींद नहीं आई. दिल रहरह कर कांप उठता था.