लेखिका- ऋतु थपलियाल
सुधा मौन हो गई थी क्योंकि उस ने ऐसा किया ही नहीं था. नंदिनी को अपनाने में जो कशमकश शादी के समय हुई थी, वही कशमकश उसे आज भी हो रही थी. जय सुधा के चेहरे के बदलते भावों को देखते ही समझ गया कि पापा की कही गई बात सीधा निशाने पर जा कर लगी है. अब वह किसी भी तरह से यह मौका हाथ से जाने नहीं देना चाहता था.
‘मां, माना कि मैं ने आप की मरजी के खिलाफ जा कर शादी की पर नंदिनी के मन में आप के प्रति कोई बुरी भावना नहीं है. पिछले कुछ वर्षों से वह बेचारी शारीरिक और मानसिक तनाव झेल रही है. हम दोनों ही चाहते हैं कि हम जल से जल्द आप की इच्छा को पूरा कर सकें पर शायद...,’ जय ने मां की ओर देख कर कहा. उस की आवाज में एक पीड़ा थी जिसे शायद सुधाजी ने महसूस कर लिया था.
दिनेश धीरे से सुधा के समीप आ गए और उन्होंने ने सुधा के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘हो सकता है इलाज में मिल रही नाकामयाबी और तुम्हारे प्रश्नों की बौछार से दोनों बच्चे बचना चाहते हों.’
सुधा मासूम बच्चे की तरह दिनेश और जय के चेहरे की तरफ देखने लगी थी.
‘आप का सोचना भी गलत नहीं है पर अगर इस मुश्किल घड़ी में हम बच्चों को आप लोग रास्ता नहीं दिखाएंगे तो और कौन दिखाएगा. मां, दादी तो अनपढ़ थीं पर आप तो पढ़ीलिखी हो. और वैसे भी, आजकल तो आईवीएफ और सैरोगेसी सुविधाएं उपलब्ध हैं. आप लोगों के समय यह सब कहां था,’ जय ने गंभीर स्वर में मां सुधा की ओर देखते हुए कहा.