लेखिका- निधि चौधरी
शहनाई की सुमधुर ध्वनियां, बैंडबाजों की आवाजें, चारों तरफ खुशनुमा माहौल. आज आस्था की शादी थी. आशा और निमित की इकलौती बेटी थी वह. आईएएस बन चुकी आस्था अपने नए जीवन में कदम रखने जा रही थी. सजतेसंवरते उसे कई बातें याद आ रही थीं.
वह यादों की किताब के पन्ने पलटती जा रही थी.
उस का 21वां जन्मदिन था.
‘बस भी करो पापा...और मां, तुम भी मिल गईं पापा के साथ मजाक में. अब यदि ज्यादा मजाक किया तो मैं घर छोड़ कर चली जाऊंगी,’ आस्था नाराज हो कर बोली.
‘अरे आशु, हम तो मजाक कर रहे थे बेटा. वैसे भी अब 3-4 साल बाद तेरे हाथ पीले होते ही घर तो छोड़ना ही है तुझे.’
‘मुझे अभी आईएएस की परीक्षा देनी है. अपने पांवों पर खड़ा होना है, सपने पूरे करने हैं. और आप हैं कि जबतब मुझे याद दिला देते हैं कि मुझे शादी करनी है. इस तरह कैसे तैयारी कर पाऊंगी.’
आस्था रोंआसी हो गई और मुंह को दोनों हाथों से ढक कर सोफे पर बैठ गई. मां और पापा उसे रुलाना नहीं चाहते थे. इसलिए चुप हो गए और उस के जन्मदिन की तैयारियों में लग गए. एक बार तो माहौल एकदम खामोश हो गया कि तभी दादी पूजा की घंटी बजाते हुए आईं और आस्था से कहा, ‘आशु, जन्मदिन मुबारक हो. जाओ, मंदिर में दीया जला लो.’
‘मां, दादी को समझाओ न. मैं मूर्तिपूजा नहीं करती तो फिर क्यों हर जन्मदिन पर ये दीया जलाने की जिद करती हैं.’
‘आस्था, तू आंख की अंधी और नाम नयनसुख जैसी है, नाम आस्था और किसी भी चीज में आस्था नहीं. न ईश्वर में, न रिश्तों में, न परंपराओं...’