लेखक- अशरफ खान

‘‘तुम अभी तक गई नहीं हो...’’ छोटी बहन हया ने हैरान हो कर जोया से पूछा.

‘‘कहां...?’’ जोया ने भी हैरान होते हुए कहा.

‘‘आजर भाई को अस्पताल में देखने,’’ हया ने कहा.

‘‘मैं क्यों जाऊं...’’ जोया ने लापरवाही से कहा.

‘‘घर के सब लोग जा चुके हैं, लेकिन तुम हो कि अभी तक नहीं गईं... आखिर वे तुम्हारे मंगेतर हैं...’’

‘‘मंगेतर... मंगेतर था... लेकिन अब नहीं. एक अपाहिज मेरा मंगेतर नहीं हो सकता. मु झे उस की बैसाखी नहीं बनना,’’ जोया आईने के सामने खड़ी अपने बाल संवार रही थी और छोटी बहन हया के सवालों के जवाब लापरवाही से दे रही थी.

जब बाल सैट हो गए तो जोया ने खुद को आईने में नीचे से ऊपर तक देखा और पर्स नचाते हुए दरवाजे से बाहर निकल गई.

आजर के यहां का दस्तूर था कि रिश्ते आपस में ही हुआ करते थे और शायद इसी रिवाज को जिंदा रखने के लिए मांबाप ने बचपन में ही उस का रिश्ता उस के चाचा की बेटी जोया से तय कर दिया था.

आजर कम बोलने वाला सुलझा हुआ लड़का था और जोया को उसकी मां के बेजा लड़ाप्यार ने जिद्दी बना दिया था.

शायद यही वजह थी कि बचपन में दोनों साथ खेलतेखेलते  झगड़ने लगते थे. जो खिलौना आजर के हाथ में होता, जोया उसे लेने की जिद करती और

जब तक आजर उसे दे नहीं देता, वह चुप न होती.

उस दिन तो हद ही हो गई थी. आजर पुरानी कौपी का कवर लिए हुए था. कवर पर कोई तसवीर बनी थी. शायद उसे पसंद थी.

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