‘‘रहने दे इसे गौतम, आ, बाहर आ जा,’’ बूआ शायद नहीं चाहती थीं कि मैं उस के समीप रहूं. दूसरे दिन एक निश्चय मन में ले कर मैं गीता के स्कूल जा पहुंचा और जबरदस्ती उसे मनोवैज्ञानिक के पास ले गया. 2 घंटे तक वह अकेले में उस से बातें करता रहा. गीता का पूरा जीवन और उस के कड़वे अनुभव उस के सामने किताब की तरह खुल गए. जब वह वापस आई तब आंखें रोरो कर सूज चुकी थीं. मैं ने समीप जा कर जब उस के सिर पर हाथ रखा तो वह फिर से रो पड़ी. मुझ पर शायद वह कुछकुछ विश्वास करने लगी थी. मैं अपने साथ उसे खाना खिलाने रेस्तरां में ले गया. अपने सामने बिठा कर उसे खाना खिलाया. नन्ही सी बच्ची की तरह वह मेरी हर बात मानती गई. ‘‘मैं कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा, गीता. डाक्टर ने क्या कहा, सब के सामने ही बताऊंगा. अब तुम जाओ. बूआ नाराज न हों, इसलिए यह मत बताना कि तुम मेरे साथ थीं.’’ डूबते को जैसे तिनके का सहारा मिला. गरदन झुका कर वह चली गई.
दूसरे दिन डाक्टर से मिला. गीता की पीड़ा और उस के निदान के बारे में सबकुछ जाना. बचपन से यौवन तक पीड़ा और उपेक्षा सहने के कारण वह सामान्य रूप से पनप ही न पाई थी. पति ने छूना चाहा तो चीख उठी, क्योंकि पिता के स्पर्श की भूख ज्यादा बलवान थी. बालसुलभ इच्छाएं परिपक्वता पर हावी हो रही थीं. हृदय की भूख और आयु की मांग में वह सीमारेखा नहीं खींच पाई थी. फिर मैं उस के स्कूल गया. मुझे देख वह धीमे से मुसकरा पड़ी. आधे दिन की छुट्टी दिला कर मैं उसे समुद्र किनारे ले गया. तेज धूप में एक छायादार कोना खोज लिया. अचानक मेरे हाथ में अपना हाथ देख वह सहम गई थी. ‘‘एक बात बताना गीता, क्या तुम शादी के बाद पति के साथ निभा नहीं पाईं या उस का व्यवहार अच्छा नहीं था?’’