वीरा और भाभी के बहुत जोर देने पर वह बाहर आ कर बैठ तो गई पर उस का मन अनमना ही रहा. कानपुर जाने के लिए उन लोगों को अगले दिन का आरक्षण मिला था.
रात में भैया, प्रणव और दिनेश की खानेपीने की विशेष महफिल जम गई. भाभी और वीरा ने मिल कर कई तरह के मांसाहारी व्यंजन बना लिए थे.
‘‘वीरा, मटन चाप तो तुम्हीं बनाओ, तुम्हारे भैया बहुत पसंद करते हैं,’’ भाभी ने हंस कर वीरा से कहा. पर उस समय वे यह नहीं देख पाईं कि वहीं खड़ी प्रिया का मुंह अचानक ही सिकुड़ कर रह गया था.
मन में पलती अपमान की पीड़ा को सिरदर्द का नाम दे कर प्रिया जल्द ही बिस्तर पर आ गई. प्रणव भी 12 बजते- बजते नींद से बोझिल आंखें लिए पलंग पर लेटते ही सो गए. पर बिस्तर पर करवटें बदलते हुए देर तक जागती प्रिया के कानों में कुछ आवाजें रहरह कर आ रही थीं.
प्रणव के आने के बाद वह स्नानघर जाने के लिए कमरे से बाहर निकली ही थी कि खाने के कमरे से आती दिनेश की आवाज सुन कर वह चौंक कर ठिठक गई. वह कह रहा था, ‘‘भैया, आप चिंता मत करिए, कोई न कोई हल शीघ्र ही निकल आएगा.’’
‘‘अरे, मुझ से ज्यादा तो चिंता सुलेखा को है जो दिनरात उसी में घुली जाती है. देखते नहीं इस का चेहरा,’’ यह भैया का स्वर था.
‘‘अरे भाभी, जब तक हम हैं तब तक तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. हम लोग कोई न कोई रास्ता खोज ही लेंगे,’’ वीरा के स्वर में दिलासा के रंग लबालब छलक रहे थे, जिन्हें महसूस कर के ही शायद भैया ने भरे कंठ से कहा, ‘‘मैं जानता हूं. तुम लोग ही तो हो जिन पर मुझे पूरा भरोसा है.’’