‘‘मैं जानती हूं कि भाभी को घूमने का शौक है पर बच्चों के कारण वे जा नहीं पातीं. इसीलिए यहां आ कर मैं ज्यादा से ज्यादा उन्हें घूमने का अवसर देती हूं. घर के कामों में उन का हाथ बंटाती हूं. इस से उन्हें भी अच्छा लगता है और मुझे भी यहां पर परायापन नहीं लगता.
‘‘फिर दीदी, जरा यह भी सोचो कि सिर्फ भाई होने के नाते क्या वे हमेशा ही हमारी झोली भरने का दायित्व निभाते रहेंगे? आखिर अब उन का भी अपना परिवार है. फिर हम लोगों के पास भी कोई कमी तो नहीं है.’’
‘‘वीरा बूआ, वीरा बूआ,’’ तभी नीचे से भैया के बेटे रोहित का स्वर गूंजा और वह लपक कर नीचे चली गई पर जातेजाते वह प्रिया के लिए विचारों का अथाह समुद्र छोड़ गई.
प्रिया सोचने लगी, ‘कितना सही कहती है वीरा. स्वयं मैं ने भी तो भैया के ऊपर हमेशा यही विवशता थोपी है. दिल्ली आ कर घूमनाफिरना या फिल्म देखने के अतिरिक्त मुझे याद नहीं कि भाभी के साथ मैं ने कभी रसोईघर में हाथ बंटाया हो.’
‘‘किस सोच में डूब गईं, दीदी?’’ काम निबटा कर वीरा फिर ऊपर आ गई तो प्रिया चौंक गई. पर मन की बात छिपाते हुए उस ने विषय पलट दिया, ‘‘वह भैया की समस्या...’’
‘‘हां, सुनो, भैया को इस बार व्यापार में 5 लाख रुपए का घाटा हुआ है. उन की आर्थिक स्थिति इस समय बहुत ही खराब है,’’ वीरा का गंभीर स्वर प्रिया को बेचैन कर गया. वह बोली, ‘‘क्या कह रही हो?’’
‘‘हां, भैया ने माल देने के लिए किसी से 5 लाख रुपए बतौर पेशगी लिए थे पर उस के बाद ही उन्हें किसी काम से बाहर जाना पड़ा. उन के पीछे कर्मचारियों की लापरवाही से माल इतने निम्न स्तर का बना कि उसे कोई आधेपौने में भी खरीदने को तैयार नहीं.’’