उन्होंने चौंक कर बिरुवा का चेहरा देखा. इस बार बिरुवा रुकने वाला नहीं है, वह जाने के लिए कटिबद्ध है. देरसवेर बिरुवा अब अवश्य चला जाएगा. कैसे और किस के सहारे काटेंगे वे अब बाकी की जिंदगी. एक विराट प्रश्नचिह्न उन के सामने जैसे सलीब पर टंगा था. सामने मरुस्थल की सी शून्यता थी, जिस में दूरदूर तक छांव का नामोनिशान नहीं था. आखिर ऐसी मरुस्थल सी जिंदगी में वे प्यासे कब तक और कहां तक भटकेंगे अकेले.
2 दिन इसी सोच में डूबे रहे. दिल कहता कि श्यामला को मना लाए. पर कदम थे कि उठने से पहले ही थम जाते थे. क्या करें और क्या न करें, इसी ऊहापोह में अगले कई दिन गुजर गए. सोचते रहते, क्या उन्हें श्यामला को मनाने जाना चाहिए, क्या एक बार फिर प्रयत्न करना चाहिए. अपने अहं को दरकिनार कर इतने वर्षों के बाद जाते भी हैं और अगर श्यामला न मानी तो... क्या मुंह ले कर वापस आएंगे.
किस से कहें वे अपने दिल की बात और किस से मांगें सलाह. बिरुवा उन के दिल में कौंधा. और किसी से तो उन का अधिक संपर्क रहा नहीं. वैसे भी और किसी से कहेंगे तो वह उन की बात पर हंसेगा कि अब याद आई. आखिर बिरुवा से पूछ ही बैठे एक दिन, ‘‘बिरुवा, क्या तुम्हें वाकई लगता है कि मुझे एक बार उन्हें मना लाने की कोशिश करनी चाहिए?’’ उन के स्वर में काफी बेचारगी थी अपने स्वाभिमान के सिंहासन से नीचे उतरने की.
बिरुवा चौंक गया उन का इस कदर लाचार स्वर सुन कर. उन की कुरसी के पास बैठता हुआ बोला, ‘‘दोबारा मत सोचिए साहब, कुछ बातों में दिमाग की नहीं, दिल की सुननी पड़ती है. मालकिन आ जाएंगी तो यह घर फिर से खुशियों से भर जाएगा. माना कि कोशिश करने में आप ने बहुत देर कर दी पर आप के दिमाग पर यह बोझ तो नहीं रहेगा कि आप ने कोशिश नहीं की थी. बाकी सब नियति पर छोड़ दीजिए.’’