लेकिन प्रमोद को तो जैसे इस सब से कोई मतलब ही नहीं था. वह शादी से 1 दिन पहले घर आया. सुबह बरात जानी थी और रात को उस ने मुझ से कहा, ‘मां, तुम्हारी जिद और झूठे अहं की वजह से मेरी जिंदगी बरबाद होने वाली है. तुम चाहो तो अब भी सबकुछ ठीक हो सकता है. तुम सिर्फ एक बार, सिर्फ एक बार प्रभा से मिल लो. अगर मैं ने उस से शादी न की तो न मैं खुश रहूंगा, न कविता और न प्रभा. मुझ से अपनी ममता का बदला इस तरह चुकाने को न कहो, मां.’
मैं गुस्से से फुफकार उठी, ‘अगर तुझे अपनी मरजी से जीना है तो जहां चाहे शादी कर ले. पर याद रख, जिस क्षण तू उस कलमुंही के साथ फेरे ले रहा होगा, तब से मैं तेरे लिए मर चुकी होऊंगी.’
फिर मैं हलवाई के पास से मिट्टी के तेल का कनस्तर उठा लाई और प्रलाप करते हुए कहा, ‘ले प्रमोद, मैं खुद ही तेरे रास्ते से हट जाती हूं.’
प्रमोद ने मुझे रोका. वह रो रहा था. मैं उस के आंसुओं को देख कर पिघली नहीं, बल्कि विजयी ढंग से मुसकराई.
अगले दिन बरात में दूल्हा के अलावा बाकी सब मस्ती में झूम रहे थे, गा रहे थे, नाच रहे थे.
उन की शादी के बाद मैं चाहती थी कि वे दोनों कहीं घूमने जाएं. पर प्रमोद ने मना कर दिया. 2 दिनों बाद वह वापस मुंबई चला गया. मैं भी कविता के साथ उस की नई गृहस्थी बसाने गई. हम दोनों ने बड़े चाव से पूरे घर को सजाया.