एक दिन मांपापा ने मेरी पसंद और नापसंद के बीच झूलते हुए दुखी मन से कहा, ‘शादी तो तुम्हें करनी ही पड़ेगी. यही समाज का नियम है. तुम अपनी नहीं तो हमारी चिंता करो. लोग कैसीकैसी बातें करते हैं.’
पापा की जिद के सामने मुझे झुकना ही पड़ा और मैं विनम्रता से बोली कि जो आप को उचित लगे और मेरे विचारों के अनुकूल हो, आप उस से मेरा विवाह कर सकते हैं.
जल्दी ही एक जगह बात पक्की हो गई. लड़का भारतीय सेना में डाक्टर था. मुझे इस बात से संतोष था कि वह मेरे साथ नहीं रहेगा और मैं मनचाही नौकरी कर सकूंगी.
शादी के दिन मैं बड़े अनमने मन से तैयार हो रही थी. मुझे चूड़ा और कलीरें पहनना, महंगे लहंगे के साथ ढेर सारे जेवर और कोहनी तक मेहंदी रचाना आदि आडंबर लगे. मैं सोचती रही कि जल्दी से किसी तरह यह निबटे तो इस से मुक्ति मिले. हर शृंगार पर मैं पूछती कि इस के बाद तो कुछ नहीं बचा है.
‘क्यों, पति से मिलने की इतनी जल्दी है क्या?’ सहेलियों ने पूछा. कोई और अवसर होता तो मैं कभी का उन्हें भगा चुकी होती पर यह सामाजिक व्यवस्था थी उस पर मांपापा की इच्छा का भी खयाल था. जितनी देर होती रही मेरा धैर्य चुकता रहा.
उसी समय बरात आ गई. मेरी सहेलियां बरात देखने चली गईं और मैं अकेली कमरे में बैठी थी. तभी मेरे पास वाले कमरे से पापा की आवाज आई, ‘भाई साहब, हम से जो बन पड़ा है हम ने किया. कोई कमी रह गई हो तो हमें माफ कर दीजिए,’ मैं ने देखा, पापा हाथ जोड़ कर विनती कर रहे थे, ‘कार का इंतजाम इतनी जल्दी नहीं हो पाया वरना उसी में बिठा कर बेटी को विदा करता.’