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उस दिन मैं मां के कमरे में न जा कर सीधे भैया के कमरे में चली गई थी. भैया अकेले कमरे में बैठे गजलें सुन रहे थे. अपर्णा मां को जूस पिला रही थी. दोनों को अनदेखा कर के मैं भैया के पास जा कर तीखे स्वर में बोली, ‘क्या आप गलत गाड़ी में सिर्र्फ इसलिए सवार रहेंगे कि पहले आप गलती से उस पर चढ़ गए थे और अब सामान समेटने और नया टिकट कटवाने के झंझट से डर रहे हैं?’

भैया शायद मेरा आशय समझ नहीं पाए थे. मैं ने दोबारा कहा, ‘अब भी वक्त है. अपर्णा से तलाक ले लीजिए और दोबारा शादी कर लीजिए.’

कुछ देर तक चुप्पी छाई रही.

‘भैया, विश्वास कीजिए. अपर्णा की मां के छल को मैं समझ नहीं पाई, वरना वह कभी मेरी भाभी नहीं बनती.’

‘कारण जाने बिना तुम भी परिणाम तक पहुंच गईं,’ वह फीकी हंसी हंस दिए,  ‘अपर्णा बहुत अच्छी है. सच बात तो यह है कि वह ब्याह करना ही नहीं चाहती थी पर मां के आगे उस की चली नहीं.’

‘झूठ की बुनियाद पर क्या इमारत खड़ी हो सकती है?’ मेरा मन अब भी अशांत था.

‘झूठ उस ने नहीं, उस की मां ने बोला था, वैसे उन का निर्णय भी गलत  कहां था? हर मां की तरह उस की मां के मन में भी अपनी बेटी को सुखी गृहस्थ जीवन देने की कामना रही होगी. तुम्हारे ब्याह के समय भी मां कितनी चिंतित थीं.’

भैया पुन: बोले, ‘अपर्णा की मां की दशा भी कुछ वैसी ही रही होगी. मानसी, कितना अजीब है हमारे समाज का चलन. बेटी की इच्छाअनिच्छा जाने बिना ब्याह की चिंता शुरू हो जाती है. अधिकांश विवाह लड़की की अनुमति के बिना होते हैं. अपर्णा ने भी विरोध किया था पर उस की एक नहीं चली और अब अपर्णा मेरी पत्नी है. उस का हर सुखदुख मेरा है.’

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