लेखिका- रोचिका अरुण शर्मा
‘‘मुझेअब मां की हालत देख कर दुख भी नहीं होता है. मैं स्वयं जानती हूं कि वे परेशान हैं,
तन व मन दोनों से. फिर भी न जाने क्यों मु झे उन से मिलने, उन का हालचाल जानने की कोई इच्छा नहीं होती,’’ मुसकान आज फिर अपनी मां के बरताव को याद कर क्षुब्ध हो उठी थी. ‘‘पर फिर भी तुम्हारी मां हैं वे, उन्होंने तुम्हें पालपोस कर बड़ा किया है, तुम्हे जन्म दिया है, तुम्हारा अस्तित्व उन्हीं से है,’’ ऐशा बोली.
मैं जानती थी कि मेरी बात सुन कर तुम यही कहोगी, मैं मानती हूं मेरे मातापिता ने मु झे जन्म दिया, मां ने मु झे नौ माह अपनी कोख में रखा, मु झे पालपोस कर बड़ा किया, मु झे इस लायक बनाया कि मैं अपने पैरों पर खड़ी हो सकूं. आत्मनिर्भर बन सकें. मैं सम झती हूं मु झ पर उन का उपकार है कि लड़कालड़की में भेद नहीं किया, हम भाइबहिन दोनों को एकसमान पाला. कि...’’ कह कर वह चुप हो गयी थी और एकटक जमीन से अपने पैर के अंगूठे से जैसे कुछ कुरेदने की कोशिश कर रही थी.
ऐशा उसके चेहरे पर आए भावों को पढ़ने की कोशिश कर रही थी. उस के होंठ जैसे कुछ कहना चाहते हों किन्तु आंखों का इरादा हो कि चुप ही रहो.
वह अंदर ही अंदर जैसे सुलग रही थी, उस की आंखें आंसुओं से चमक उठी थीं और नथुने फूले से दिखाई पड़ रहे थे. चेहरे के भाव दर्शा रहे थे जैसे अंतस में दबे पुराने जख्म हरे हो रहे हों. वह आंखों में चमके आंसू अपने हलक में उतार रही थी.