लेखक- माधव जोशी
एक रात मैं ने जयंत से इस बात का जिक्र भी किया. वे व्यथित हो गए और कहने लगे, ‘‘मां को सभी दुख उसी इंसान ने दिए हैं, जिसे दुनिया मेरा बाप कहती है. मेरा बस चले तो मैं उस से इस दुनिया में रहने का अधिकार छीन लूं. नहीं जयति, नहीं, मैं उसे कभी माफ नहीं कर सकता. उस का नाम सुनते ही मेरा खून खौलने लगता है.’’ जयंत का चेहरा क्रोध से तमतमाने लगा. मैं अंदर तक कांप गई. क्योंकि मैं ने उन का यह रूप पहली बार देखा था.
फिर कुछ संयत हो कर जयंत ने मेरा हाथ पकड़ लिया और भावुक हो कर कहा, ‘‘जयति, वादा करो कि तुम मां को इतनी खुशियां दोगी कि वे पिछले सभी गम भूल जाएं.’’ मैं ने जयंत से वादा तो किया लेकिन पूरी रात सो न पाई, कभी मां का तो कभी जयंत का चेहरा आंखों के आगे तैरने लगता. लेकिन उसी रात से मेरा दिमाग नई दिशा में घूमने लगा. अब मैं जब भी मांजी के साथ अकेली होती तो अपने ससुर के बारे में ही बातें करती, उन के बारे में ढेरों प्रश्न पूछती. शुरूशुरू में तो मांजी कुछ कतराती रहीं लेकिन फिर मुझ से खुल गईं. उन्हें मेरी बातें अच्छी लगने लगीं. एक दिन बातों ही बातों में मैं ने जाना कि लगभग 7 वर्ष पहले वह दूसरी औरत कुछ गहने व नकदी ले कर किसी दूसरे प्रेमी के साथ भाग गई थी. पिताजी कई महीनों तक इस सदमे से उबर नहीं पाए. कुछ संभलने पर उन्हें अपने किए पर पछतावा हुआ. वे पत्नी यानी मांजी के पास आए और उन से लौट चलने को कहा. लेकिन जयंत ने उन का चेहरा देखने से भी इनकार कर दिया. उन के शर्मिंदा होने व बारबार माफी मांगने पर जयंत ने इतना ही कहा कि वह उन के साथ कभी कोई संबंध नहीं रखेगा. हां, मांजी चाहें तो उन के साथ जा सकती हैं. लेकिन तब पिताजी को खाली लौटना पड़ा था. मैं जान गई कि यदि उस वक्त जयंत अपनी जिद पर न अड़े होते तो मांजी अवश्य ही पति को माफ कर देतीं, क्योंकि वे अकसर कहा करती थीं, ‘इंसान तो गलतियों का पुतला है. यदि वह अपनी गलती सुधार ले तो उसे माफ कर देना चाहिए.’