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अब दोनों के बीच में अदृश्य दीवार खड़ी हो गई. वर्षा मन ही मन कुढ़ती रहती. उस का मन अब सुधीर से बोलने को भी नहीं होता था. वह उस के प्रश्नों का उत्तर हां या न में दे कर सामने से हट जाती व अपनी तरफ से कोई बात नहीं करती.

भरत भी उस की आंखों में चुभने लगा था. उस का मन विद्रोह कर बैठता, ‘जब सुधीर उस के लव को नहीं स्वीकारता तो वही क्यों भरत को छाती से लगाती रहे? पराए जाए अपने तो नहीं बन सकते, भरत से कौन सा उस का लहू का रिश्ता है? बड़ा हो कर भरत भी उसे आंखें दिखाने लगेगा. फिर वह उसे अपना क्यों समझे?’

दोनों के मध्य पनपता अवरोध मांजी की पैनी निगाहों से नहीं छिप सका. वह बारबार पूछने लगीं, ‘‘बहू, जब से तुम मायके से लौटी हो तुम ने हंसना बंद कर दिया है. यह उदासी तुम्हारे होने वाले बच्चे के लिए अच्छी नहीं.’’

वर्षा खुद को सामान्य दिखाने का प्रयास करती रहती पर मांजी संतुष्ट नहीं हो पाती थीं.

कभी वह कुरेदतीं, ‘‘सुधीर ने कुछ कहा है क्या? वह भी आजकल खामोश रहता है. तुम दोनों में कोई अनबन तो नहीं हो गई?’’

वर्षा ने उन्हें इस डर से सबकुछ नहीं बताया कि मांजी ही कौन सी उस की सगी हैं. जब सुधीर ही उस का दर्द नहीं समझा तो मांजी कैसे समझेंगी.

वह मांजी से भी दूर रह कर अंतर्मुखी बनने लगी. एक सुबह उठ कर मांजी ने घर में ऐलान किया कि वे हरिद्वार गंगा स्नान को जाएंगी. प्रौढ़ावस्था में उन्हें मोहमाया के बंधन तोड़ कर आत्मिक शांति पाने के प्रयास शुरू करने हैं. मांजी का यह कथन सभी को अटपटा लगा क्योंकि वे अब तक धर्म, कर्म तथा पंडेपुजारियों को पाखंड की संज्ञा देती आई थीं पर हरिद्वार जाने पर आपत्ति किसी ने नहीं दिखाई. सुधीर ने भी कह दिया, ‘‘इसी बहाने प्राकृतिक दृश्यों को देख कर तुम्हारा स्वास्थ्य उत्तम हो जाएगा.’’

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