बड़ी जेठानी ने माथे का पसीना पोंछा और धम्म से आंगन में बिछी दरी पर बैठ गईं. तभी 2 नौकरों ने फोम के 2 गद्दे ला कर तख्त पर एक के ऊपर एक कर के रख दिए. दालान में चावल पछोरती ननद काम छोड़ कर गद्दों को देखने लगी. छोटी चाची और अम्माजी भी आंगन की तरफ लपकीं. बड़ी जेठानी ने गर्वीले स्वर में बताया, ‘‘पूरे ढाई हजार रुपए के गद्दे हैं. चादर और तकिए मिला कर पूरे 3 हजार रुपए खर्च किए हैं.’’
आसपास जुटी महिलाओं ने सहमति में सिर हिलाया. गद्दे वास्तव में सुंदर थे. बड़ी बूआ ने ताल मिलाया, ‘‘अब ननद की शादी में भाभियां नहीं करेंगी तो कौन करेगा?’’ ऐसे सुअवसर को खोने की मूर्खता भला मझली जेठानी कैसे करती. उस ने तड़ से कहा, ‘‘मैं तो पहले ही डाइनिंग टेबल का और्डर दे चुकी हूं. आजकल में बन कर आती ही होगी. पूरे 4 हजार रुपए की है.’’
घर में सब से छोटी बेटी का ब्याह था. दूरपास के सभी रिश्तेदार सप्ताहभर पहले ही आ गए थे. आजकल शादीब्याह में ही सब एकदूसरे से मिल पाते हैं. सभी रिश्तेदारों ने पहले ही अपनेअपने उपहारों की सूची बता दी थी, ताकि दोहरे सामान खरीदने से बचा जा सके शादी के घर में.
अकसर रोज ही उपहारों की किस्म और उन के मूल्य पर चर्चा होती. ऐसे में वसुंधरा का मुख उतर जाता और वह मन ही मन व्यथित होती.
वसुंधरा के तीनों जेठों का व्यापार था. उन की बरेली शहर में साडि़यों की प्रतिष्ठित दुकानें थीं. सभी अच्छा खाकमा रहे थे. उस घर में, बस, सुकांत ही नौकरी में था. वसुंधरा के मायके में भी सब नौकरी वाले थे, इसीलिए उसे सीमित वेतन में रहने का तरीका पता था. सो, जब वह पति के साथ इलाहाबाद रहने गई तो उसे कोई कष्ट न हुआ.