लेखक- जीतेंद्र मोहन भटनागर
आईसीयू के गहरे नीले रंग के कांच के बाहर उसे रोक कर वार्ड बौय ने स्ट्रेचर पर पड़े पिता को अंदर ले जा कर एडमिट करा दिया.
अंदर से आईसीयू की नर्स ने बाहर निकल कर आलोक से कुछ कागजों पर आवश्यक डिटेल भरवाई, फिर कई जगह आलोक के दस्तखत ले कर कहा, “मिस्टर आलोक, आज तो मजबूरी थी, वरना कोविड के आईसीयू वार्ड के आसपास किसी का भी आनाजाना वर्जित है. कल से आप को नीचे रिसेप्शन लौबी में कुछ देर के लिए प्रवेश मिलेगा और वहीं से संबंधित रोगी का स्वास्थ्य स्टेटस भी मिल जाएगा. अब आप जा सकते हैं.”
कांच के बाहर से ही आलोक ने एक असहाय सी नजर से आईसीयू के बेड पर लिटा दिए गए बेहोश पिता को देखने का प्रयास किया. उन के चेहरे पर औक्सीजन मास्क चढ़ा दिया गया था. स्लाइन और दवाएं भी हथेली की नसों के द्वारा शरीर में जानी शुरू हो गई थीं.
आलोक का वहां से हटने का मन नहीं हो रहा था. वह कुछ देर और वहीं खड़ा रहना चाहता था, तभी आईसीयू की सिक्योरिटी में लगे गार्ड ने आलोक के साथ वहां इक्कादुक्का और भी फालतू खड़े लोगों को बाहर निकाल दिया.
उस दिन आलोक घर तो आ गया. मां को सब हाल बता कर संतुष्ट भी कर दिया, पर भीतर ही भीतर बहुत बेचैन था. ये कैसी महामारी है, जिस ने सब का पिछला साल भी खराब कर दिया और इस साल भी भयंकर रूप से फैले चली जा रही है.
उस के बाद अगले 26 दिनों तक वह घर से अस्पताल लौकडाउन की सारी बाधाओं को दूर कर अस्पताल तो पहुंच जाता, जबकि उसे पता चल गया था कि उस की रिपोर्ट भी पोजिटिव आई है, लेकिन अगर उस ने बता दिया और कहीं उसे भी एडमिट कर लिया गया तो मां और अंशिका का क्या होगा. कौन दौड़भाग करेगा, इसलिए उस ने इस बात को अपने भीतर ही छुपा लिया.