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पड़ोसिनों की प्रशंसा से पुलकित, दीपकजी तब दोगुने उत्साह से पड़ोसियों के काम करते. प्रभा उन के ऐसे व्यवहार से कुढ़ती थी, यह बात नहीं. बस, उस का यही कहना था कि यह घोर सामाजिक व्यक्ति कभी तो पारिवारिक दायित्वों को समझे. यह क्या बात हुई कि लोगों के जिन कामों को दीपकजी तत्परता से निबटा आते थे, उन्हीं कामों के लिए प्रभा लाइन में धक्के खाती थी. कभी कुछ कह बैठती तो दीपकजी से स्वार्थी की उपाधि पाती. प्रभा को इस उपाधि से एतराज था भी नहीं. वह कहती, ‘ऐसे परमार्थ से तो स्वार्थ ही भला.’

‘आजकल महिलाएं भी पुरुषों के  कंधे से कंधा मिला कर आगे बढ़ रही  हैं. उन्हें भी बाहर के सारे कामों का  ज्ञान होना अति आवश्यक है,’ दीपकजी  उसे समझते. ‘ये उपदेश अपनी भाभियों को क्यों नहीं देते?’ प्रभा तैश में आ जाती. ‘उन्हें उन के पति देंगे, मैं कौन होता हूं,’ दीपकजी कहते.

‘बोझ ढोने वाले?’ प्रभाजी मन ही मन कहतीं और मुसकरा पड़तीं. अवकाशप्राप्ति के बाद तो दीपकजी के पास समय ही समय था. मित्र, परिचित, रिश्तेदार सभी की तकलीफें दूर करने को वे हाजिर रहते. बाकी बचे समय में बच्चों के साथ टीवी देखते या ताश खेलते. कभीकभी दुनियाभर के समाचार सुन कर घंटों आपस में उन्हीं विषयों पर लंबा वार्त्तालाप करते, वादविवाद करते, चिंतित होते और सो जाते.

चिंता नहीं थी तो बस, इस बात की कि विकास ने अपने विकास के सारे रास्ते खुद ही क्यों अवरुद्ध कर रखे हैं? तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त कर के भी उसे बेकार घूमना क्यों पसंद है? 12वीं की परीक्षा का तनाव जब बच्चों के साथसाथ उन के मातापिता पर भी हावी रहता हो तब विभा और उस के पिता इस से अछूते क्यों हैं?

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