लेखिका- लीला रूपायन
हर्ष की मां की तबीयत खराब रहने लग गई थी. मैं तो अपनी बीमारी का कंबल ओढ़े पड़ी रहती थी. किसी को क्या तकलीफ है, मुझे इस से कोई मतलब नहीं था. घर में एक औरत रखी गई, जो माताजी की दिनरात सेवा करती थी. उस का नाम था सुषमा. मैं देखती, कुढ़ती, मां के लिए हर्ष कितना चिंतित हैं, मेरी कोई परवा नहीं, लेकिन मैं यह देख कर भी हैरान होती कि यह सुषमा किस माटी की बनी है. सुबह से ले कर देर रात तक यह कितनी फुरती से काम करती है. थकती तक नहीं. मुंह पर शिकन तक नहीं आती. हमेशा हंसती रहती.
एक दिन मैं लौन में बैठी थी तो सुषमा भी मेरे पास आ कर बैठ गई. बड़े प्यार और हमदर्दी से बोली थी, ‘आप को क्या तकलीफ है, मैडम?’
‘कुछ समझ में नहीं आता,’ मैं ने थके स्वर में कहा था.
‘डाक्टर क्या बताते हैं?’
‘किसी की समझ में कुछ आए तो कोई बताए. किसी काम में मन नहीं लगता, किसी से बात करना अच्छा नहीं लगता. हर समय घबराहट घेरे रहती है.’
‘मेरी बात का बुरा मत मानना, मैडम, एक बात कहूं?’ सुषमा ने डरतेडरते पूछा था.
‘कहो.’
‘आप अपने को व्यस्त रखा करिए. कई बार इंसान के सामने कोई काम नहीं होता तो वह इसी तरह अनमना सा बना रहता है. बच्चों को भी आप ने होस्टल में भेज दिया, वरना तो उन्हीं का कितना काम हो जाता. आप अपने घर की देखभाल खुद क्यों नहीं करतीं?’
‘एक बात बता, सुषमा, तू रोज दोपहर को 2-3 घंटे के लिए कहां जाती है?’ मैं ने उत्सुकता से पूछा था.