लेखक- मीनू त्रिपाठी
देवांशी परेशान अदिति के कंधे पर हाथ रखती हुई बोली, ‘‘क्या वाकई, तुम्हारा प्यार छलावा था?’’
‘‘कैसी बात कर रही है? मेरी जान है धु्रव... प्यार करती हूं तभी तो उस के लिए ये सब कर रही हूं. हाय एक टैडीबियर हमारे प्यार को साबित करेगा... ये सब कितनी बेवकूफी है.’’
अदिति के मुंह से ये सब सुन कर देवांशी को पहले तो हंसी आई पर फिर गंभीर हो कर बोली, ‘‘सब जानती है तो क्यों ये सब धु्रव से छिपा रही है? वहां अर्णव परेशान है और यहां तुम.’’
‘‘फिर क्या करूं बता?’’ अदिति मायूसी
से बोली.
देवांशी कुछ सोचते हुए कहने लगी, ‘‘चलो, अब इतने झूठ बोले हैं तो एक और बोल दो. कह दो कि टैडी कोई बच्चा उठा ले गया या फिर तुम्हारी मम्मी ने किसी को दे दिया अथवा गुम हो गया.’’
अदिति चहकी, ‘‘हां देवांशी, यह गुम होने वाला आइडिया सब से अच्छा है, क्योंकि लेनेदेने वाले आइडिया में पाने की कोई न कोई गुंजाइश होती है पर गुम हुआ यानी मिलने की न के बराबर उम्मीद है,’’ यह कहते ही उत्साहित अदिति के चेहरे पर सुकून छा गया. जैसे कोई बहुत बड़ा निबटारा हो गया हो.
दूसरे दिन देवांशी को अदिति ने फोन पर सूचित किया कि उन की तरकीब काम
कर गई है. अर्णव ने अपने जीजू से माफी मांगते हुए टैडी के गुम होने की बात कह दी. धु्रव एक बार फिर बहकावे में आ गया... उस से झूठ बोलना अच्छा नहीं लगा. फिर भी अदिति खुश थी कि इस टैडी वाले प्रसंग से हमेशा के लिए पीछा छूटा...