टूर पर जाने के लिए प्रिया ने सारी तैयारी कर ली थी. 2 बैग में सारा सामान भर लिया था. बेटी को पैकिंग करते देख सुधा ने पूछा, ‘‘इस बार कुछ ज्यादा सामान नहीं ले जा रही हो?’’

‘‘हां मां, ज्यादा तो है,’’ गंभीर स्वर में प्रिया ने कहा. अपने जुड़वां भाई अनिल, भाभी रेखा को बाय कह कर, उदास आंखों से मां को देखती हुई प्रिया निकल गई. 10 मिनट के बाद ही प्रिया ने सुधा को फोन किया, ‘‘मां, एक पत्र लिख कर आप की अलमारी में रख आई हूं. जब समय मिले, पढ़ लेना.’’ इतना कह कर प्रिया ने फोन काट दिया.

सुधा मन ही मन बहुत हैरान हुईं, उन्होंने चुपचाप कमरे में आ कर अलमारी में रखा पत्र उठाया और बैड पर बैठ कर पत्र खोल कर पढ़ने लगीं. जैसेजैसे पढ़ती जा रही थीं, चेहरे का रंग बदलता जा रहा था. पत्र में लिखा था, ‘मां, मैं मुंबई जा रही हूं लेकिन किसी टूर पर नहीं. मैं ने अपना ट्रांसफर आप के पास से, दिल्ली से, मुंबई करवा लिया है क्योंकि मेरे सब्र का बांध अब टूट चुका है. अभी तक तो मेरा कोई ठिकाना नहीं था, अब मैं आत्मनिर्भर हो चुकी हूं तो क्यों आप को अपना चेहरा दिखादिखा कर, आप की तीसरी गलती, हर समय महसूस करवाती रहूं. तीसरी गलती, आप के दिल में मेरा यही नाम हमेशा रहा है न. ‘इस दुनिया में आने का फैसला तो मेरे हाथ में नहीं था न. फिर आप क्यों मुझे हमेशा तीसरी गलती कहती रहीं. सुमन और मंजू दीदी को तो शायद उन के हिस्से का प्यार दे दिया आप ने. मेरी बड़ी बहनों के बाद भी आप को और पिताजी को बेटा चाहिए था तो इस में मेरा क्या कुसूर है? मेरी क्या गलती है? अनिल के साथ मैं जुड़वां हो कर इस दुनिया में आ गई. अपने इस अपराध की सजा मैं आज तक भुगत रही हूं. कितना दुखद होता है अनचाही संतान बन कर जीना.

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