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लिहाजा पल्लवी को चुप रह जाना पड़ा. फिर तो जब तक दोनों नाश्ता करती रहीं, पारुल मैसेज पढ़ती रही और जवाबी मैसेज भेजती रही. उस ने एक बार भी मुंह ऊपर नहीं उठाया. उलटे हाथ से लैटर टाइप करते हुए सीधे हाथ से एक कौर उठाती और मुंह में डाल लेती. क्या खा रही है, कैसा स्वाद है, मैसेज में मगन पारुल को कुछ पता नहीं चल रहा था.

पल्लवी मन ही मन खीज रही थी कि उस के इतने कीमती और ढेर सारे नाश्ते पर पारुल का ध्यान ही नहीं है.

पारुल के लगातार बेवजह हंसते रहने को पल्लवी उस की आंतरिक खुशी नहीं उस की दुख छिपाने की चेष्टा ही समझी. पल्लवी जैसी बुद्धिहीन और समझ ही क्या सकती थी. तभी तो यह सुन कर कि पारुल के यहां खाना बनाने को बाई या रसोइया नहीं, पल्लवी अवाक उसे देखती रही.

‘‘इस में इतना अचरज करने की क्या बात है दीदी? 2 ही तो लोग हैं. पीयूष को भी खाना बनाने का शौक है. हम दोनों मिल कर खाना बना लेते हैं और जरूरी बातचीत भी हो जाती है,’’ पारुल ने सहज रूप से उत्तर दिया.

अब तो पल्लवी के आश्चर्य की सीमा नहीं रही. पुरुष और किचन में? यह तो जैसे दूसरी दुनिया की बात है. उस ने न तो अपने पिताजी को कभी किचन में जाते देखा न कभी प्रशांत ने ही कभी वहां पैर रखा. पुरुष तो छोडि़ए, पल्लवी ने तो अपने घर की औरतों यानी मां या दादी को भी सिवा रसोइए को क्या बनेगा के निर्देश देने के और किसी काम से किचन में पैर रखते नहीं देखा.

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