अब नाना की हिदायत होने लगी कि मैं रात को फोन न पकड़ूं, दोपहर तक न सोई रहूं, भले ही रात 3 बजे तक नींद आई हो. मेरा ड्रायर से गीले बाल सुखाना उन्हें गवारा न था जबकि होटल में हमें ऐसी ही हिदायतें दी गई थीं क्योंकि हमें ड्यूटी में गीले बाल ले कर आना मना था. पोशाक मेरी मरजी की मैं पहनूं तो नाना की सभ्यता में खलल पड़ता.
मतलब इन कोलाहलों ने मेरे अंतर्मन को सन्नाटे में तबदील कर दिया था. नाना अपनी जगह सही थे. और मैं अब बच्ची नहीं रह गई थी, यह सब नाना को समझाते रहने की एक बड़ी कठिन परिस्थिति से मैं जूझने को मजबूर थी.
अब बहुत हो चुका था. अंतर्मुखी होना मेरी खासीयत से ज्यादा नियति हो गई थी. प्यारइमोशन, सुखदुख अब मैं किसी से साझा नहीं करना चाहती थी. मुझे अपने पापा के आदेशोंनिर्देशों, नाना के अफसोसों, मां की प्यारभरी फिक्रों से नफरत होने लगी थी. मैं सब से दूर जाना चाहती थी. और तब जाने कैसे इस निर्बंध के बंधन में जकड़ कर यहां आ पहुंची थी. यह था उस की अभी तक की जिंदगी का इतिहास.
खुली खिड़की से कुहरा मेरी तरफ बढ़ता सा नजर आया, जैसे अब आ कर मुझे पूरी तरह जकड़ लेगा और मैं खो जाऊंगी इस घने से शून्य में.
ठंड से जकड़न बढ़ती जा रही थी मेरी. पीछे से जैसे कुहरे ने हाथ रखा हो मेरी पीठ पर. मैं सिहर कर पीछे मुड़ी. ओह, प्रबाल वापस आ गया था और अपना ठंडा बर्फीला हाथ मेरी पीठ पर रख मुझे बुला रहा था. वह बोला, ‘‘यह लो अदरक वाली चाय. मैं पी कर तुम्हारे लिए एक ले आया. इस लौज के नीचे क्या मस्त चाय बन रही है. यहां से दूर उस सामने पहाड़ी तक घने कुहरे की चादर बिछ गई है. चलो न, अब तैयार हो कर पैदल चलें पहाड़ी तक.’’