लेखक- रमेश चंद्र छबीला
दोपहर का खाना खा कर मेनका थोड़ी देर आराम करने के लिए कमरे में आई ही थी कि तभी दरवाजे की घंटी बज उठी.
मेनका ने झल्लाते हुए दरवाजा खोला. सामने डाकिया खड़ा था.
डाकिए ने उसे नमस्ते की और पैकेट देते हुए कहा, ‘‘मैडम, आप की रजिस्टर्ड डाक है.’’
मेनका ने पैकेट लिया और दरवाजा बंद कर कमरे में आ गई. वह पैकेट देखते ही समझ गई कि इस में एक किताब है. पैकेट पर भेजने वाले गुरुजी के हरिद्वार आश्रम का पता लिखा हुआ था.
मेनका की जरा भी इच्छा नहीं हुई कि वह उस किताब को खोल कर देखे या पढ़े. वह जानती थी कि यह किताब गुरु सदानंद ने लिखी है. सदानंद उस के पति अमित का गुरु था. वह उठतेबैठते, सोतेजागते हर समय गुरुजी की ही बातें करता था, जबकि मेनका किसी गुरुजी को नहीं मानती थी.
मेनका ने किताब का पैकेट एक तरफ रख दिया. अजीब सी कड़वाहट उस के मन में भर गई. उस ने बिस्तर पर लेट कर आंखें बंद कर लीं. साथ में उस की 3 साल की बेटी पिंकी सो रही थी.
मेनका समझ नहीं पा रही थी कि उसे अमित जैसा अपने गुरु का अंधभक्त जीवनसाथी मिला है तो इस में किसे दोष दिया जाए?
शादी से पहले मेनका ने अपने सपनों के राजकुमार के पता नहीं कैसेकैसे सपने देखे थे. सोचा था कि शादी के बाद वह अपने पति के साथ हनीमून पर शिमला, मसूरी या नैनीताल जाएगी. पहाड़ों की खूबसूरत वादियों में उन दोनों का यादगार हनीमून होगा.
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