कमलेश के साथ मैं ने विवाहित जिंदगी के 30 साल गुजारे थे, लेकिन कैंसर ने उसे हम से छीन लिया. सिर्फ एक रिश्ते को खो कर मैं बेहद अकेला और खाली सा हो गया था.
ऊब और अकेलेपन से बचने को मैं वक्तबेवक्त पार्क में घूमने चला जाता. मन की पीड़ा को भुलाने के लिए कोई कदम उठाना, उस से छुटकारा पा लेने के बराबर नहीं होता है.
आजकल किसी के पास दूसरे के सुखदुख को बांटने के लिए समय ही कहां है. हर कोई अपनी जिंदगी की समस्याओं में पूरी तरह उलझा हुआ है. मेरे दोनों बेटे और बहुएं भी इस के अपवाद नहीं हैं. मैं अपने घर में खामोश सा रह कर दिन गुजार रहा था.
कमलेश से बिछड़े 2 साल बीत चुके थे. एक शाम पापा के दोस्त आलोकजी मुझे हार्ट स्पैशलिस्ट डाक्टर नवीन के क्लीनिक में मिले. उन की विधवा बेटी सरिता उन के साथ थी.
बातोंबातों में मालूम पड़ा कि आलोकजी को एक दिल का दौरा 4 महीने पहले पड़ चुका था. उन की बूढ़ी, बीमार आंखों में मुझे जिंदगी खो जाने का भय साफ नजर आया था.
उन्हें और उन की बेटी सरिता को मैं ने उस दिन अपनी कार से घर तक छोड़ा. तिवारीजी ने अपनी जिंदगी के दुखड़े सुना कर अपना मन हलका करने के लिए मुझे चाय पिलाने के बहाने रोक लिया था.
कुछ देर उन्होंने मेरे हालचाल पूछे और फिर अपने दिल की पीड़ा मुझ से बयान करने लगे, ‘‘मेरा बेटा अमेरिका में अपनी पत्नी व बच्चों के साथ ऐश कर रहा है. वह मेरी मौत की खबर सुन कर भी आएगा कि नहीं मुझे नहीं पता. तुम ही बताओ कि सरिता को मैं किस के भरोसे छोड़ कर दुनिया से विदा लूं?