मेरी बुरी हालत देख मेरे ननद व ननदोई को बहुत दुख होता था. एक वे ही तो थे, जो मेरा दुख समझते थे. लेकिन उन्हें भी अर्णब ऐसे कड़वे बोल बोलते थे कि उन्होंने फिर यहां आना ही छोड़ दिया. हर इनसान को अपनी इज्जत प्यारी होती है.
पढ़ाई की डिगरी तो थी ही मेरे पास, अपनी पैरवी से मेरे ननदोई ने एक स्कूल में मेरी नौकरी लगवा दी. दोनों बच्चों का भी उन्होंने उसी स्कूल में एडमिशन करवा दिया, ताकि मुझे ज्यादा परेशानी न हो.
मैं जल्दीजल्दी घर के काम खत्म कर दोनों बच्चों को ले कर स्कूल चली जाती और 5 बजतेबजते घर आ जाती थी, फिर घर के बाकी काम संभालती, बच्चों को होमवर्क करवाती. रोज की मेरी यही दिनचर्या बन गई थी. कोई मतलब नहीं रखती मैं अर्णब से कि वह जो करे. लेकिन उसे कहां बरदाश्त हो पा रहा था मेरा खुश रहना, इसलिए वह कोई न कोई खुन्नस निकाल कर मुझ से लड़ता और जब मैं भी सामने से लड़ने लगती, क्योंकि मैं भी कितना बरदाश्त करती अब... तो जो भी हाथ में मिलता, उसे ही उठा कर मारने लगता मुझे. और मेरी सास तो थीं ही आग में घी का काम करने के लिए.
कृति तो अभी बच्ची थी, लेकिन बेटा जिगर हम दोनों को लड़तेझगड़ते देख टेंशन में रहने लगा था. पढ़ाई से भी उस का मन उचटने लगा था. वह गुमसुम सा चुपचाप अपने कमरे में बैठा रहता. ज्यादा कुछ पूछती तो रोने लगता या झुंझला पड़ता. वह अपने दोस्तों से भी दूर होने लगा था. हमारी लड़ाई का असर उस के दिमाग पर पड़ने लगा था अब. उस की मानसिक स्थिति बिगड़ते देख मैं तो कांप उठी अंदर से... और तभी मैं ने फैसला कर लिया कि अर्णब मुझे मार ही क्यों न डाले, पर मैं चुप रहूंगी सिर्फ अपने बेटे के लिए.