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‘समय के साथ हम में एक सहज सी दोस्ती हो गई थी. हम दोनों एकदूसरे के साथ जब कभी बैठते या 2 कप कौफी के लिए कैंटीन ही जाते, हम अच्छा सा महसूस करते, जैसे एकदूसरे के लिए हम कोई टौनिक थे.

‘कालेज से निकलते वक्त पल्लव मुझे अपना फोन नंबर और पता दे गए थे.

यह छोटा सा आदानप्रदान लगातार जारी रहा. और हम जैसेतैसे इस महीने से संपर्कसूत्र को बनाए रखने में सफल हुए. कह लो, एक सीधीसादी, अच्छी दोस्ती जहां कुछ न हो कर भी बहुतकुछ... चलो छोड़ो, तुम लोग अपनी खबर सुनाओ.’

मेरा दिल धुकपुक कर रहा था. भाई के चेहरे पर डर, कुंठा, असमंजस सब झलक आया था.

आखिर ममा हमें क्या कहते रुक गई थी.

हम दोनों मां की खुशियां चाहते थे. लेकिन कहीं यह खुशी परिवार टूटने से ही जुड़ी हो, तो?

परिवार टूटने का ग़म कम तो नहीं होता.

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ममा इस बीच पल्लव जी के पास गई और रसोइए ने जो खाना पहुंचाया, उसे उन्हें खिला कर हमारे पास आ गई.

हम तीनों आज बड़े दिनों बाद साथ खाना खा रहे थे और पुराने दिनों से कहीं बेहतर मनोदशा में.

तब तो खाने पर मां के बैठते ही पापा की कटूक्ति और ताने शुरू हो जाते.

आज हमारा खाना हम दोनों भाईबहनों की अपनी पसंद का था. भाई की पसंद का छोलेभटूरे, मेरी पसंद की वेज बिरयानी, पनीर दोप्याजा.

‘ममा, यह मकान तो पल्लव जी का होगा, है न?’ मेरे इतना पूछते ही ममा ने कहना शुरू किया-

‘मेरे बच्चे, मैं अभी यहां फिलहाल 25 हजार रुपए प्रतिमाह की नौकरी करती हूं. तुम्हें लगता है कि सालभर में मैं 2 करोड़ रुपए का यह दोमंजिला मकान खरीद पाऊंगी? बच्चे, यह पल्लव जी का ही मकान है.’

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