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पंकज कई दिनों से सोच रहा था कि रामचंदर बाबू के यहां हो आया जाए, पर कुछ संयोग ही नहीं बना. दरअसल, महानगरों की यही सब से बड़ी कमी है कि सब के पास समय की कमी है. दिल्ली शहर फैलता जा रहा है.

15-20 किलोमीटर की दूरी को ज्यादा नहीं माना जाता. फिर मैट्रो ने दूरियों को कम कर दिया है. लोगों को आनाजाना आसान लगने लगा है. पंकज ने तय किया कि  कल रविवार है, हर हाल में रामचंदर बाबू से मुलाकात करनी ही है.

किसी के यहां जाने से पहले एक फोन कर लेना तहजीब मानी जाती है और सहूलियत भी. क्या मालूम आप 20 किलोमीटर की दूरी तय कर के पहुंचें और पता चला कि साहब सपरिवार कहीं गए हैं. तब आप फोन करते हैं. मालूम होता है कि वे तो इंडिया गेट पर हैं. मन मार कर वापस आना पड़ता है. मूड तो खराब होता ही है, दिन भी खराब हो जाता है. पंकज ने देर करना मुनासिब नहीं समझा, उस ने मोबाइल निकाल कर रामंचदर बाबू को फोन मिलाया.

रामचंदर बाबू घर पर ही थे. दरअसल, वे उम्र में पंकज से बड़े थे. वे रिटायर हो चुके हैं. उन्होंने 45 साल की उम्र में वीआरएस ले लिया था. आज 50 के हो चुके हैं.

‘‘हैलो, मैं हूं,’’ पंकज ने कहा.

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‘‘अरे वाह,’’ उधर से आवाज आई, ‘‘काफी दिनों बाद तुम्हारी आवाज सुनाई दी. कैसे हो भाई.’’

‘‘मैं ठीक हूं. आप कैसे हैं?’’

‘‘मुझे क्या होना है. बढि़या हूं. कहां हो?’’

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