फिर विकास ने एक दिन उस से कहा, ‘‘मैं यहां रह कर तुम्हारी बेरुखी सहन नहीं कर सकता. मैं ने दिल्ली शाखा में अपना ट्रांसफर करवा लिया है. तुम से बहुत प्यार करता हूं और तुम्हारा इंतजार करूंगा. जब भी इस बात पर यकीन आ जाए, एक फोन कर देना, मैं चला आऊंगा.’’
नलिनी का चेहरा आंसुओं से भीग गया पर वह कुछ कह न पाई. थोड़े दिन बाद विकास दिल्ली चला गया. जातेजाते भी उस ने नलिनी से अपने सारे वहम निकालने के लिए कहा. लेकिन नलिनी को उस की कोई बात समझ नहीं आई. उस के जाते ही नलिनी फिर खालीपन और अकेलेपन से घिर गई. उसे लगता जैसे उस का शरीर निष्प्राण हो गया है. बाहर से सबकुछ कितना शांत पर भीतर ही भीतर बहुत कुछ टूट कर बिखर गया. सोचती रहती उसे छोड़ कर क्या उस ने गलती की या वैसा करना ही सही था?
विकास ने जब उस के जन्मदिन पर उसे सुबहसुबह फोन किया तो उस की इच्छा हुई कि दौड़ कर विकास के पास पहुंच जाए, लेकिन उस ने फिर खुद पर नियंत्रण रख कर औपचारिक बात की. अब उस के जीवन का एक ढर्रा बन गया था और वह किसी भी तरह इसे तोड़ना नहीं चाहती थी. वह सोचती, उन के बीच जो फासला पसरा हुआ था उसे अभी भी नहीं पाटा जा सकता था शायद यह और लंबा हो गया था.
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विकास को गए 4 महीने हो चुके थे. नलिनी की मां की अचानक हृदयघात से मृत्यु हो गई. वह अब बिलकुल अकेली हो गई. कुसुम अपने पति मोहन और दोनों बच्चों के साथ अकसर आ जाती. अभी तक नलिनी मां के साथ अपने वन बैडरूम फ्लैट में आराम से रह रही थी, कुसुम सपरिवार आती तो घर में जैसे तूफान आ जाता. जिस शांति की नलिनी को आदत थी, वह भंग हो जाती और मोहन की भेदती नजरें उस से सहन न होतीं. जितनी तनख्वाह नलिनी की थी उस में उस का और मां का गुजारा आराम से चलता आया था. सोसायटी की मैंटेनैंस, बिजली का बिल, फोन का बिल, जरूरी खर्चों के बाद भी नलिनी आराम से अपने और मां के खर्चों की पूरी जिम्मेदारी निभाती रही थी.