दोपहर को लंच कर मृदंगम ने पैठणी साड़ी निकाली और खुश हो कामेश को बताने लगी, ‘‘पता है आप को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में पैठण नगर है न, वहीं हथकरघे पर बुनाई शुरू हुई थी पैठणी साडि़यों की. प्योर सिल्क और सोनेचांदी के धागों से बुनते हुए इस के पल्लू और बौर्डर पर लताएं, कपास की कलियां, नारियल व तोते आदि का चित्रांकन किया जाता है.’’
तब तक इशू अपने कमरे से निकल कर आ गया, ‘‘जल्दी करो न मम्मा, बातें बाद में कर लेना. शाम होने लगेगी तो फोटो अच्छे नहीं आएंगे और आप दोनों मेरी गलती निकालने लगेंगे,’’ वह नाराज होने का अभिनय करता हुआ बोला.
मृदंगम तैयार होने चल दी. कामेश भी बार्डरोब से रौसिल्क का कुरता निकाल प्रैस करने लगा. कपड़े बदल कर वह इशू के साथ बालकनी में खड़ा हो मृदंगम की प्रतीक्षा करने लगा.
मृदंगम कमरे से निकली तो कामेश अपलक निहारता ही रह गया. उस की काया से लिपटी साड़ी यों दमक रही थी जैसे सूर्य की किरणों ने अपनी सारी चमक उसे ही दे दी हो. पहनने के बाद साड़ी पर उभरे गोल्डन पीकौक बेहद मनमोहक लग रहे थे. गुलाबी बौर्डर पर रंगबिरंगी बेलबूटियां देख कर लग रहा था जैसे खूबसूरत पत्तियों और फूलों की पंखुडि़यों को बगीचे से तोड़ कर चिपका दिया है. बैगनी, सुनहरे तथा गुलाबी रंगों से बुने आंचल पर मोर का नीला व तोते का हरा रंग मिल जाने से इंद्रधनुष सी छटा बिखर रही थी. मृदंगम का सौंदर्य उस साड़ी में और भी निखर गया था. दपदप करते मुख पर लिपस्टिक में रंगे भीगे कोमल होंठ, खुशी और ब्लशर की मिलीजुली आभा लिए उजले गुलाबी गाल और काजल से सजी मुसकराती आंखें, माथे पर लगी गहरी बिंदी में वह किसी मूरत सी दिख रही थी.