लेखिका- रेनू मंडल
बात बहुत छोटी सी थी किंतु अपने आप में गूढ़ अर्थ लिए हुए थी. मेरा बेटा रजत उस समय 2 साल का था जब मैं और मेरे पति समीर मुंबई घूमने गए थे. समुद्र के किनारे जुहू बीच पर हमें रेत पर नंगे पांव चलने में बहुत आनंद आता था और नन्हा रजत रेत पर बने हमारे पैरों के निशानों पर अपने छोटेछोटे पांव रख कर चलने का प्रयास करता था. उस समय तो मुझे उस की यह बालसुलभ क्रीड़ा लगी थी किंतु आज 25 वर्ष बाद नर्सिंग होम के कमरे में लेटी हुई मैं उस बात में छिपे अर्थ को समझ पाई थी.
हफ्ते भर पहले पड़े सीवियर हार्टअटैक की वजह से मैं जीवन और मौत के बीच संघर्ष करती रही थी, मैं समझ सकती हूं वे पल समीर के लिए कितने कष्टकर रहे होंगे, किसी अनिष्ट की आशंका से उन का उजला गौर वर्ण स्याह पड़ गया था. माथे पर पड़ी चिंता की लकीरें और भी गहरा गई थीं, जीवन की इस सांध्य बेला में पतिपत्नी का साथ क्या माने रखता है, इसे शब्दों में जाहिर कर पाना नामुमकिन है.
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नर्सिंग होम में आए मुझे 6 दिन बीत गए थे. यद्यपि मुझे अधिक बोलने की मनाही थी फिर भी नर्सों की आवाजाही और परिचितों के आनेजाने से समय कब बीत जाता था, पता ही नहीं चलता था. अगली सुबह डाक्टर ने मेरा चेकअप किया और समीर से बोले, ‘‘कल सुबह आप इन्हें घर ले जा सकते हैं किंतु अभी इन्हें बहुत एहतियात की जरूरत है.’’
घर जाने की बात सुनते ही हर्षित होने के बजाय मैं उदास हो गई थी. मन में बेचैनी और घुटन का एहसास होने लगा था. फिर वही दीवारें, खिड़कियां और उन के बीच पसरा हुआ भयावह सन्नाटा. उस सन्नाटे को भंग करता मेरा और समीर का संक्षिप्त सा वार्तालाप और फिर वही सन्नाटा. बेटी पायल का जब से विवाह हुआ और बेटा रजत नौकरी की वजह से दिल्ली गया, वक्त की रफ्तार मानो थम सी गई है. शुरू में एक आशा थी कि रजत का विवाह हो जाएगा तो सब ठीक हो जाएगा. किंतु सब ठीक हो जाएगा जैसे शब्द इनसान को झूठी तसल्ली देने के लिए ही बने हैं. सबकुछ ठीक होता कभी नहीं है. बस, एक झूठी आशा, झूठी उम्मीद में इनसान जीता रहता है.