सुरभि को शक निश्चित रूप से शीतला पर ही था, क्योंकि दूसरा कोई घर में आता ही नहीं था. उन्होंने लाख समझाना चाहा, उस से चेन ढूंढ़ने के लिए कहा, पर वह नहीं मानी थी. शीतला हर प्रकार से अपनी सफाई दे रही थी. पर उन्हें इस बात की जरूरत ही नहीं थी. जिस औरत ने कभी 4 पैसे की हेराफरी नहीं की वह इतना बड़ा अपराध कैसे कर सकती है, यह तो वे जानते थे.
अपराधी के कठघरे में भयातुर, डरीसहमी सी शीतला के माथे पर उन्होंने ज्यों ही हाथ रखा था, वह बिलखबिलख कर रो पड़ी थी, ‘‘साहब, आप के घर का नमक खाया है. आप के साथ इतना बड़ा विश्वासघात मैं कैसे करूंगी?’’
पर सुरभि ने शीतला को जेल की चारदीवारी में बंद करवा कर ही चैन की सांस ली. आंख की किरच आंख से निकली ही भली. पर वह शायद यह नहीं समझ पाई थी कि झूठे अहं और संदेह के पलीते से भरा यह ऐसा भयानक विस्फोट था जिस ने पतिपत्नी के भावनात्मक संबंधों को हिला कर रख दिया.
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प्रारूप शीतला की जमानत करवा आए थे, अपने घर पर उन्होंने उसे फिर काम नहीं दिया था. उन के लिए उस की आंखों में तिरते उन अनुत्तरित प्रश्नों की शलाकाएं झेलना सहज नहीं था. उस के बाद वे अकसर दौरे पर रहते. घर पर रहते भी तो उदास से, बहुत कम बोलते थे. अपनी किताबों की दुनिया में ही खोए रहते. मृदुल के साथ जरूर बोलबतिया लेते थे. उस विद्रोहिणी नारी ने उन का चैन लूट लिया था. उस का सान्निध्य उन्हें वितृष्णा से भर देता था.