पिछला भाग पढ़ने के लिए- बदलती दिशा भाग-2
जया को लगा उस के सामने एक धूर्त इनसान बैठा है.
‘‘और सुनो, रात को खाने में कीमा और परांठा बनवाना.’’
‘‘डेढ़ सौ रुपए गिन कर रख जाओ कीमा और घी के लिए, तब बनेगा.’’
‘‘रहने दो, मैं सब्जीरोटी खा लूंगा.’’
उस दिन जया दफ्तर में बैठी काम कर रही थी कि उस के ताऊ की बेटी दया का फोन आया. घबराई सी थी. दया से उसे बहुत लगाव है. उस के साथ जया जबतब फोन पर बात करती रहती है.
‘‘जया, मैं तेरे पास आ रही हूं.’’
‘‘बात क्या है? कुशल तो है न?’’
‘‘मैं आ कर बताऊंगी.’’
आधा घंटा भी नहीं लगा कि दया चली आई. वास्तव मेें ही वह परेशान और घबराई हुई थी.
‘‘पहले बैठ, पानी पी...फिर बता हुआ क्या?’’
‘‘मेरी छोटी ननद का रिश्ता पक्का हो गया है, पर महज 50 हजार के लिए बात अटक गई. लड़का बहुत अच्छा है पर 50 हजार का जुगाड़ 2 दिन में नहीं हो पाया तो रिश्ता हाथ से निकल जाएगा. सब जगह देख लिया...अब बस, तेरा ही भरोसा है.’’
‘‘परेशान मत हो. मेरे पास 80 हजार रुपए पड़े हैं. तू चल मेरे साथ, मैं पैसे दे देती हूं.’’
दया को साथ ले कर जया घर आई. अलमारी का लौकर खोला तो वह एकदम खाली पड़ा था. जया को चक्कर आ गए. दया उस का चेहरा देख चौंकी और समझ गई कि कुछ गड़बड़ है. बोली, ‘‘क्या हुआ, जया?’’
‘‘40 हजार के विकासपत्र थे. पिछले महीने मेच्योर हो कर 80 हजार हो गए थे. सोच रही थी कि उठा कर उन्हें डबल कर दूंगी पर...’’